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शङ्कराचार्य
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केरल से चलकर शङ्कर नर्मदातट पर आये और वहाँ स्वामी गोविन्द भगवत्पाद से 'संन्यासदीक्षा ली। गुरूपदिष्ट मार्ग से साधना आरम्भ कर अल्प काल में ही वे बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा हो गये । गुरु की आज्ञा से काशी आये । यहाँ उनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग शिष्यत्व ग्रहण करने लगे। उनके प्रथम शिष्य सनन्दन थे जो पीछे पद्मपादाचार्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। शिष्यों को पढ़ाने के साथ वे ग्रन्थ भी लिखते जाते थे। कहते हैं कि एक दिन भगवान् विश्वनाथ ने चाण्डाल के रूप में शङ्कर को दर्शन दिया। वे चाण्डाल को आगे से हटने का आग्रह करने लगे । भगवान् ने उनको एकात्मवाद का मर्म समझाया और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। जब भाष्य लिखना पूरा हो गया तो एक दिन एक ब्राह्मण ने गङ्गातट पर उनसे एक सूत्र का अर्थ पूछा। इस सूत्र पर ब्राह्मण के साथ उनका आठ दिनों तक शास्त्रार्थ हुआ। पीछे उन्हें ज्ञात हुआ कि ये स्वयं भगवान् वेदव्यास हैं । फिर वेदव्यास ने उन्हें अद्वैतवाद का प्रचार करने की आज्ञा दी और उनकी १६ वर्ष की आयु को ३२ वर्ष तक बढ़ा दिया । शङ्कराचार्य दिग्विजय को निकल पड़े।
उनकी वाणी में मानो साक्षात् सरस्वती ही विराजती थी। यही कारण है कि ३२ वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने अनेक बड़े-बड़े ग्रन्थ रच डाले और सारे भारत में भ्रमण कर विरोधियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। भारत के चारों कोनों में चार प्रधान मठ स्थापित किये और सारे देश में युगान्तर उपस्थित कर दिया। थोड़े में यह कहा जा सकता है कि शङ्कराचार्य ने डूबते हुए सनातन धर्म की रक्षा की। उनके धर्म संस्थापन के कार्य को देखकर लोगों का यह विश्वास हो गया कि वे साक्षात् भगवान् शङ्कर के ही अवतार थे-'शङ्करः शङ्करः साक्षात्' और इसी से प्रायः 'भगवान्' शब्द के साथ उनका स्मरण किया जाता है।
शङ्कराचार्य के आविर्भाव एवं तिरोभाव-काल के सम्बन्ध में अनेक मत है। किन्तु अधिकांश लोग इनकी स्थिति ७८८ तथा ८२० ई० के मध्य मानते हैं। इनका जन्म केरल प्रदेश के पूर्णा नदी तटवर्ती कालटी नामक गाँव में वैशाख शुक्ल पञ्चमी को हुआ था। पिता का नाम शिवगुरु तथा माता का नाम सुभद्रा अथवा विशिष्टा था। __ कोई महान विभूति अवतरित हुई है इसका प्रमाण उनके बचपन से ही मिलने लगा था। इसी बीच उनके पिता का वियोग हो गया। एक वर्ष की अवस्था होतेहोते बालक मातृभाषा में अपने भाव प्रकट करने लगा तथा दो वर्ष की अवस्था में पुराणादि की कथा सुनकर कण्ठस्थ करने लगा। पाँचवें वर्ष यज्ञोपवीत कर उन्हें गुरुगृह भेजा गया तथा सात वर्ष को अवस्था में ही वे वेद और वेदाङ्गों का पूर्ण अध्ययन करके घर आ गये। उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन चकित रह गये। विद्याध्ययन समाप्त कर शङ्कर ने संन्यास लेने की इच्छा प्रकट की परन्तु माता ने आज्ञा न दी। शङ्कर माता के बड़े भक्त थे एवं उन्हें कष्ट देकर संन्यास नहीं लेना चाहते थे । एक दिन माता के साथ नदी स्नान करते समय एक मगर ने इन्हें पकड़ लिया। माता बेचैन होकर हाहाकार करने लगी । इस पर शङ्कर ने कहा कि यदि आप संन्यास लेने की आज्ञा दे दें तो यह मगर मुझे छोड़ देगा। माता ने तुरत आज्ञा दे दी और मगर ने शङ्कर को छोड़ दिया। संन्यास मार्ग में जाते समय शङ्कर माता की इच्छा के अनुसार यह वचन देते गये कि तुम्हारी मृत्यु के समय मैं घर पर अवश्यमेव उपस्थित रहूँगा।
यहाँ से कुरुक्षेत्र होते हुए वे कश्मीर की राजधानी श्रीनगर पहुँचे और शारदा देवी के सिद्ध पीठ में अपने भाष्य को प्रमाणित कराया। उधर से लौटकर बदरिकाश्रम गये और वहाँ अपने अन्य ग्रन्थों की पूर्ति में लग गये । बारह वर्ष से पन्द्रह वर्ष तक की अवस्था में उन्होंने सारे ग्रन्थ लिखे। वहाँ से प्रयाग आये जहाँ कुमारिल भट्ट से भेंट हुई। कुमारिल के अनुसार वे वहाँ से माहिष्मती नगरी में मण्डन मिश्र के पास शास्त्रार्थ के लिए गये । मण्डन मिश्र के हारने पर उनकी पत्नी भारती ने भी उनसे शास्त्रार्थ किया। सपत्नीक मण्डन पर विजय प्राप्त करके शङ्कर महाराष्ट्र गये तथा वहाँ शवों और कापालिकों को परास्त किया। वहाँ से चलकर दक्षिण में तुङ्गभद्रा के तट पर उन्होंने एक मन्दिर बनवाकर उसमें कश्मीर वाली शारदा देवी की स्थापना की। उसके लिए वहाँ जो मठ स्थापित हुआ उसे शृङ्गगिरि (शृंगेरी) मठ कहते हैं। इस मठ के अध्यक्ष सुरेश्वर ( मण्डन ) बनाये गये। वहाँ से माता की मृत्यु का समय आया जानकर घर पहुँचे और माँ की
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