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उपनिषद् में पाया जाता है, जिसमें पशु, पाश, पशुपति आदि पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है । इससे लगता है कि उस समय से पाशुपत सम्प्रदाय बनने की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी थी ।
रामायण- महाभारत के समय तक शैवमत शैव अथवा माहेश्वर नाम से प्रसिद्ध हो चुका था । महाभारत में माहेश्वरों के चार सम्प्रदाय बतलाये गये हैं- (१) गंव (२) पाशुपत ( ३ ) कालदमन और ( ४ ) कापालिक । वैष्णव आचार्य यामुनाचार्य ने कालदमन को ही 'कालमुख' कहा है। इनमें से अन्तिम दो नाम शिव को रुद्र तथा भयङ्कर रूप में सूचित करते हैं, जब प्रथम दो शिव के सौम्य रूप को स्वीकार करते हैं। इनके धार्मिक साहित्य को शैवागम कहा जाता है । इनमें से कुछ वैदिक और शेष अवैदिक हैं ।
सम्प्रदाय के रूप में पाशुपत मत का संघटन बहुत पहले प्रारम्भ हो गया था। इसके संस्थापक आचार्य लकुलीश थे। इन्होंने लकुल ( लकुट ) धारी शिव की उपासना का प्रचार किया, जिसमें शिव का रुद्र रूप अभी वर्तमान था । इसकी प्रतिक्रिया में अद्वैत दर्शन के आधार पर समयाचारी वैदिक शैव मत का संघटन सम्प्रदाय के रूप में हुआ I इसकी पूजापद्धति में शिव के सौम्य रूप की प्रधानता थी। किन्तु इस अद्वैत शैव सम्प्रदाय की भी प्रतिक्रिया हुई । ग्यारहवीं शताब्दी में वीर शैव अथवा लिङ्गायत सम्प्रदाय का उदय हुआ, जिसका दार्शनिक आधार शक्तिविशिष्ट अद्वैतवाद था।
कापालिकों ने भी अपना साम्प्रदायिक संघटन किया । इनके साम्प्रदायिक चिह्न इनकी छः मुद्रिकाएँ थीं, जो इस प्रकार है- (१) कण्ठहार (२) आभूषण (३) कर्णाभूषण, (४) चूडामणि ( ५ ) भस्म और ( ६ ) यज्ञोपवीत । इनके आचार शिव के घोर रूप के अनुसार बड़े बीभत्स थे, जैसे कपालपात्र में भोजन, शव के भस्म को शरीर पर लगाना, भस्मभक्षण, यष्टिवारण, मदिरापात्र रखना, मदिरापात्र का आसन बनाकर पूजा का अनुष्ठान करना आदि । कालमुख साहित्य में कहा गया है कि इस प्रकार के आचार से लौकिक और पारलौकिक सभी कामनाओं की पूर्ति होती है। इसमें सन्देह नहीं कि कापालिक क्रियाएं शुद्ध दशैवमत से बहुत दूर चली गयी और इनका मेल वाममार्गी शाकों से अधिक हो गया ।
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शेवमत
पहले शैवमत के मुख्यतः दो ही सम्प्रदाय थे --- पाशुपत और आगमिक | फिर इन्हीं से कई उपसम्प्रदाय हुए, जिनकी सूची निम्नाङ्कित है :
१. पाशुपत शैव मत (१) पाशुपत (२) लकुलीश पाशुपत, (३) कापालिक,
२. आगमिक शैव मत
(१) शैव सिद्धान्त, (२) तमिल व
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(३) काश्मीर शैव, (४) वीर शैव ।
पाशुपत सम्प्रदाय का आधारग्रन्थ महेश्वर द्वारा रचित 'पाशुपतसूत्र' है। इसके ऊपर कौण्डिम्वरचित 'पञ्चार्थीभाष्य' है। इसके अनुसार पदाथों की संख्या पाँच है(१) कार्य (२) कारण ( ३ ) योग ( ४ ) विधि और (५) दुःखान्त । जीव ( जीवात्मा) और जड ( जगत् ) को कार्य कहा जाता है । परमात्मा ( शिव ) इनका कारण है, जिसको पति कहा जाता है । जीव पशु और जड पाश कहलाता है । मानसिक क्रियाओं के द्वारा पशु और पति के संयोग को योग कहते हैं । जिस मार्ग से पति की प्राप्ति होती है उसे विधि की संज्ञा दी गयी है पूजाविधि में निम्नाङ्कित क्रियाएँ आवश्यक है - (१) हँसना ( २ ) गाना (३) नाचना ( ४ ) हुंकारना और ( ५ ) नमस्कार । संसार के दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति ही दुःखान्त अथवा मोक्ष है ।
आगमिक शवों के
सिद्धान्त के ग्रन्थ संस्कृत
और तमिल दोनों में हैं ।
इनमें पति, पशु और पाश इन
चार
तीन मूल तत्वों का गम्भीर विवेचन पाया जाता है। इनके अनुसार जीव पशु है जो अश और अणु है जीव पशु अज्ञ । प्रकार के पाशों से बद्ध है । यथा - मल, माया और रोम शक्ति साधना के द्वारा जब पशु पर पति का शक्तिपात ( अनुग्रह ) होता है तब वह पाश से मुक्त हो जाता है। इसी को मोक्ष कहते हैं । काश्मीर व मत दार्शनिक दृष्टि से अद्वैतवादी है। अद्वैत वेदान्त और काश्मीर से मत में साम्प्रदायिक अन्तर इतना है कि अद्वैतवाद का ब्रह्म निष्क्रिय है किन्तु काश्मीर शैवमत का ब्रह्म ( परमेश्वर ) कर्तृत्वसम्पन्न है | अद्वैतवाद में ज्ञान की प्रधानता है, उसके साथ भक्ति का सामञ्जस्य पूरा नहीं वंठवा काश्मोर संयमत में ज्ञान
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( ४ ) नाथ सम्प्रदाय, (५) गोरख पन्थ, (६) रसेश्वर ।
कर्म,
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