________________
संसार-संस्कार
भुज्यमाने गृहक्षेत्रे विद्यमाने तु राजनि । भक्तिर्यस्य भवेत्तस्य न लेग्ये तत्र कारणम् ॥
संवर्त के अनुसार स्त्रीधन, लाभ और निक्षेप पर वृद्धि (ब्याज) नहीं लगती, जब तक कि स्वयं स्वीकृत न की गयी हो :
न वृद्धिः स्त्रीधने लाभे निक्षेपे च यथास्थिते । संदिग्धे प्रातिभाव्ये च यदि न स्यात्स्वयं कृता ।।
(स्मृतिचन्द्रिका, व्यव०, १५७) जीवानन्द के स्मृतिसंग्रह ( भाग १, पृ० ५८४-६०३) और आनन्दाश्रमस्मृतिसंग्रह (प० ४११-२४) में संवतस्मृति संगहीत है. जिसमें क्रमशः २२७ और २३० श्लोक हैं। इसमें कहा गया है कि संवर्त ने वामदेव आदि ऋषियों के सम्मुख इस स्मृति का प्रवचन किया था ।
संवर्तस्मृति के विषय व्यवहार पर उद्धृत वचनों से अधिक प्राचीन जान पड़ते हैं। संसार-संसरण, गति, खसकाध रखनेवाला, अर्थात् जो गातमान् अथवा नश्वर ह। नयायिका के अनुसार 'मिथ्या ज्ञान से उत्पन्न वासना' को संसार कहते हैं ( 'संसारश्च मिथ्याधीप्रभवा वासना' ) मर्त्यलोक अथवा भूलोक को सामान्यतः संसार कहते हैं । कूर्मपुराण (ईश्वरगीता, द्वितीय अध्याय) में संसार की परिभाषा इस प्रकार दी हुई है :
न माया नैव च प्राणश्चैतन्यं परमार्थतः । अहं कर्ता सुखी दुःखी कृशः स्थूलेति या मतिः ।। सा चाहंकारकर्तृत्वादात्मन्यारोप्यते जनः । वदन्ति वेदविद्वांसः साक्षिणं प्रकृतेः परम् ।। भोक्तारमक्षरं शुद्धं सर्वत्र समवस्थितम् । तस्मादज्ञानमूलोऽयं संसारः सर्वदेहिनाम् ।। [आत्मा परमार्थतः चैतन्य है; माया और प्राण नहीं, किन्तु वह अज्ञान से अपने को कर्ता, सुखी, दुःखी, कृश, स्थूल आदि मान लेता है। मनुष्य अहंकार से उत्पन्न कर्तृत्व के कारण इन परिस्थितियों को अपने ऊपर आरोपित कर लेते हैं । विद्वान लोग आत्मा को प्रकृति से परे ( भिन्न ) मानते है। वास्तव में वही भोक्ता, अक्षर, शुद्ध और सर्वत्र विद्यमान है। इसलिए (वास्तव में) शरीर- धारियों का यह संसार (मर्त्यलोक) अज्ञान से उत्पन्न हुआ है।
संसारमोक्षण---वैष्णव सम्प्रदाय में संसार से मुक्ति पाने की प्रक्रिया को 'संसार मोक्षण' कहते हैं। वाराह पुराण ( सूतस्वामिमाहात्म्यनामाध्याय) में कथन है :
एवमेतन्महाशास्त्रं देवि संसारमोक्षणम् । मम भक्तव्यवस्थायै प्रयुक्तं परमं मया ॥ वामनपुराण (अध्याय ९०) में संसार से मोक्ष पाने का उपाय इस प्रकार बतलाया गया है :
ये शङ्खचक्राब्जकरं तु शाङ्गिणं खगेन्द्रकेतुं वरदं श्रियः पतिम् । समाश्रयन्ते भवभीतिनाशनं
संसारगर्ते न पतन्ति ते पुनः ।। संस्कार-) STRट का प्रयोग कई अर्थों में जोता है। मेदिनीकोश के अनुसार इसका अर्थ है प्रतियत्न, अनुभव और मानस कर्म । न्याय दर्शन के अनुसार यह गुणविशेष है। यह तीन प्रकार का होता है-(१) वेगाख्य (यह वेग अथवा कर्म से उत्पन्न होता है ) (२) स्थितिस्थापक (यह पृथ्वी का गुण है, यह अतीन्द्रिय और स्पन्दनकारण होता है) और (३) भावना ( यह आत्मा का अतीन्द्रिय गुण है, यह स्मरण और प्रत्यभिज्ञा का कारण है )।
(२) शरीर एवं वस्तुओं को शुद्धि के लिए उनके विकास के साथ समय-समय पर जो कर्म किये जाते हैं उन्हें संस्कार कहते हैं । यह विशेष प्रकार का अदृष्ट फल उत्पन्न करनेवाला कर्म होता है। इस प्रकार शरीर के मुख्य संस्कार सोलह है-(१) गर्भाधान (२) पुंसवन (३) सीमन्तोन्नयन (४) जातकर्म (५) नामकरण (६) निष्क्रमण (७) अन्नप्राशन (८) चूडाकरण (९) कर्णवेध (१०) विद्यारम्भ (११) उपनयन (१२) वेदारम्भ (१३) केशान्त (१४) समावर्तन (१५) विवाह और (१६) अन्त्येष्टि । संस्कार से किसी भी वस्तु का उत्कर्ष हो जाता है। विस्तार के लिए देखिए नीलकंठ : संस्कारमयूख; मित्रमिश्र : संस्कार प्रकाश ।
(३) जीर्ण मन्दिरादि के पुनरुद्धार को भी संस्कार कहते हैं । शास्त्रों में इसका बड़ा महत्त्व बतलाया गया है । संस्कारहीन-(१) जिस व्यक्ति का समय से विहित संस्कार न हो उसे संस्कारहीन कहा जाता है। शास्त्र में ऐसे व्यक्ति की संज्ञा 'वात्य' है। विशेषकर उपनयन संस्कार अवधि के भीतर न होने से व्यक्ति सावित्रीपतित अथवा व्रात्य हो
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org