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षोडशोपचार-संवतं
वगला सिद्धविद्या च मातङ्गी कमलात्मिका । सिद्धियों को देनेवाली, नित्य भक्तों के आनन्द को बढ़ाने
एता दश महाविद्या सिद्धविद्याः प्रकीर्तिताः ।। वाली इस प्रकार की शक्ति के रूप में सकार का ध्यान विशेष विवरण के लिए दे० 'ज्ञानार्णव' ।
करके इस के मन्त्र को दस बार जपना चाहिए । त्रिशक्ति (३) एक प्रकार का श्राद्ध । यह प्रायः संन्यासियों की सहित, आत्मादि तत्त्व से संयुक्त इस वर्ण को बराबर स्मृति में किया जाता है ।
प्रणाम करके हृदय में इसकी भावना करनी चाहिए।] षोडशोपचार-तन्त्रसार में सोलह प्रकार के पूजाद्रव्यार्पणों संयम-व्रत के एक दिन पूर्व विहित नियमों के पालन को को षोडशोपचार कहा गया है। देवपूजा में यही क्रम संयम कहते हैं । यह व्रत का ही पूर्व अङ्ग है । एकादशीअधिकतर प्रयुक्त होता है।
तत्त्व में इसका निम्नांकित विधान है : षोढान्यास-वीरतन्त्र के अनुसार शरीर के अंगों में छः शाकं माष मसूरञ्च पुनर्भोजनमैथुने । प्रकार से मन्त्रों के न्यास को षोढान्यास (षड्धा न्यास) द्यूतमत्स्यम्बुपानञ्च दशम्यां वैष्णवस्त्यजेत् ।। कहते हैं । इनमें अंगन्यास, करन्यास, महान्यास, अन्तर्बहि- कांस्यं मांसं सुरां क्षौद्रं लोभं वितथभाषणम् । र्मातृका आदि होते हैं ।
व्यायामञ्च व्यवायञ्च दिवास्वप्नं तथाञ्जनम् ।। तिलपिष्टं मसूरञ्च दशम्यां वर्जयेत् पुमान् ।
दशम्याम् एकभक्तञ्च कुर्वीत नियतेन्द्रियः ॥ स-कामधेनुतन्त्र में स अक्षर के स्वरूप का निम्नांकित
आचम्य दन्तकाष्ठञ्च खादेत तदनन्तरम् । वर्णन है :
पूर्वं हरिदिनाल्लोकाः सेवध्यं चैकभोजनम् ।। सकारं शृणु चाङ्गि शक्तिबीजं परात्परम् ।
अवनीपृष्ठशयनाः स्त्रियाः सङ्गविजिताः । कोटि विद्युल्लताकारं कुण्डलीत्रयसंयुतम् ।।
संवदध्वं देवदेवं पुराणं पुरुषोत्तमम् ।। पञ्चदेवमयं देवि पञ्चप्राणात्मकं सदा ।
सकृद् भोजनसंतुष्टा द्वादश्याञ्च भविष्यथ ।। रजः सत्त्व तमोयुक्तं त्रिबिन्दुसहितं सदा ॥ संवर्त-(१) मुनि विशेष का नाम । मार्कण्डेय पुराण [हे सुन्दरी पार्वती ! सुनो। यह अक्षर कलायुक्त, (१३०.११) में इनके विषय में कहा गया है कि ये अंगिरा शक्तिबीज, परात्पर, करोडों विद्युत् की लता के समान ऋषि के पुत्र और बृहस्पति के भ्राता थे । ज्योतिस्तत्त्व के आकार वाला, तीन कुण्डलियों से युक्त, पञ्चदेवमय, पञ्च- अनुसार एक प्रकार के मेघ का नाम भी सवर्त है, जो प्राणात्मक, सदा सत्त्व-रज-तम तीन गुणों से युक्त और प्रभूत पानी बरसाने वाला होता है : त्रिबिन्दु सहित है।]
आवर्तो निर्जलो मेघः संवर्तश्च बहूदकः । वर्णोद्धारतन्त्र में इसका ध्यान इस प्रकार बतलाया पुष्करो दुष्करजलो द्रोणः सस्यप्रपूरकः ।। गया है :
(२) धर्मशास्त्रकारों में से एक का नाम । याज्ञवल्क्यशुक्लाम्बरां शुक्लवर्णा द्विभुजां रक्तलोचनाम् । स्मृति में स्मृतिकारों की सूची में इनका उल्लेख है । श्वेतचन्दनलिप्ताङ्गी मुक्ताहारोपशोभिताम् ।। विश्वरूप, मेधातिथि, विज्ञानेश्वर (मिताक्षराकार), हरदत्त, गन्धर्वगीयमानाञ्च सदानन्दमयी पराम् । अपराक आदि व्याख्याकारों ने विभिन्न विषयों पर संवर्त अष्टसिद्धिप्रदां नित्यां भक्तानन्दविवद्धिनीम् ।। के वचन उद्धृत किये हैं । व्यवहार के कई अंगों पर संवर्त एवं ध्यात्वा सकारं तु तन्मन्त्र दशधा जपेत् । का मत उल्लेखनीय है । उदाहरण के लिए, लिखित साक्ष्य त्रिशक्तिसहितं वर्ण आत्म दि तत्त्वसंयुतम् ।। के विरोध में मौखिक साक्ष्य अमान्य है : प्रणम्य सततं देवि हृदि भावय सुन्दरि ।।
लेख्य लेख्यक्रिया प्रोक्ता वाचिके वाचिकी मता। [ शुक्ल (श्वेत) वस्त्र धारण करने वाली, शुक्ल वर्ण वाचिके तु न सिध्यत्सा लेख्यस्योपरि या क्रिया ।। वाली, दो भुजाओंवाली, लाल नेत्र वाली, श्वेत चन्दन
(अपरार्क, पृ० ६९१-९२) लिप्त शरीर वाली, मोती के हार से सुशोभित, गन्धों से परन्तु गृह और क्षेत्र के स्वाम्य के सम्बन्ध में लेख्य से प्रशंसित होती हुई, सदा आनन्दमयी, पराशक्तिरूप, आठ भुक्ति अधिक प्रामाणिक है :
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