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षट्त्रिंशत्-पष्टितन्त्र
फल मिलता है इसमें कोई संदेह नहीं। पति सर्वतीर्थमय सिद्धान्तों का प्रौढ दार्शनिक शैली में यह निरूपण करता और सर्वपुण्यमय है।
है। इसके क्रम, भक्ति, प्रेम सन्दर्भ आदि छः खण्ड है। (६) पत्नीतीर्थ-सदाचार का पालन करने वाली, षडक्षरदेव-वीरशैव सम्प्रदाय के आचार्य, जो १६५७ ई० प्रशंसनीय आचरण करने वाली, धर्म साधन में लगी हई, के आस-पास हए (दे० राइस : कन्नड लिटरेचर, पृ० ६२, सदा पातिव्रत का पालन करने वाली तथा ज्ञान की नित्य ६७)। इन्होंने कन्नड भाषा में राजशेखरविलास, शबरअनुरागिणी, गुणवती, पुण्यमयी, महासती पत्नी जिसके घर शङ्करविलास आदि ग्रन्थों की रचना की। हो उसके घर में देवता निवास करते हैं। ऐसे घर में षडङ्ग-वेद को षडङ्ग भी कहते हैं (षट् अङ्गानि यस्य) गङ्गा आदि पवित्र ननियाँ, समुद्र, यज्ञ, गौएँ ऋषिगण यथा : तथा सम्पूर्ण पवित्र तीर्थ रहते हैं। कल्याण तथा उद्धार
शिक्षा कल्पो व्याकरणं निरुक्तं छन्दसाञ्चयः । के लिए भार्या के समान कोई तीर्थ नहीं, भार्या के समान
ज्योतिषामयनञ्चैव षडङ्गो वेद उच्यते ॥ सुख नहीं और भार्या के समान पुण्य नहीं । ऐसी पत्नी भी
विशेष विवरण के लिए दे० 'वेदाङ्ग।' पवित्र तीर्थ है।
षड्गुरुशिष्य-ऋक्संहिता की अनेक अनुक्रमणिकाएँ हैं । षत्रिंशत्-'एकादशीतत्त्व' ग्रन्थ में देवता पूजन के छत्तीस इनमें शौनक की रची अनुवाकानुक्रमणी और कात्यायन उपचार बताये गये हैं। उनके नाम इस प्रकार हैं :
की रची सर्वानुक्रमणी अधिक प्रसिद्ध हैं। इन दोनों पर १. आसन २. अभ्यञ्जन ३. उद्वर्तन ४. विरुक्षण ५. विस्तृत टीकाएँ लिखी गयी हैं। टोकाकार का नाम है सम्मार्जन ६. घृतादि से स्नपन ७. आवाहन ८. पाद्य ९. षड्गुरुशिष्य । यह कहना कठिन है कि यह टीकाकार का अर्ध्य १०. आचमनीय ११. स्नानीय १२. मधुपर्क १३. वास्तविक नाम है अथवा विरुद । टीकाकार ने अपने छ: पुनराचमनीय १४. वस्त्र १५. यज्ञोपवीत १६. अलङ्कार गुरुओं के नाम लिखे हैं, जो इस प्रकार है-१. विनायक १७. गन्ध १८. पुष्प १९. धूप २०. दीप २१. ताम्बूलादिक २. त्रिशूलान्तक ३. गोविन्द ४. सूर्य ५. व्यास और नैवेद्य २२. पुष्पमाला २३.अनुलेप २४. शय्या २५. चामर- ५. शिवयार व्यजन २६. आदर्शदर्शन २७. नमस्कार २८. नर्तन २९. षड्विशब्राह्मण-सामवेद की कौथुमीय संहिता का ब्राह्मणगीत ३०. वाद्य ३१. दान ३२. स्तुति ३३. होम ३४.
ग्रन्थ चालीस अध्यायों में लिखा गया है । यह पाँच ब्राह्मणों प्रदक्षिणा ३५. दन्तकाष्ठ प्रदान ३६. देव विसर्जन ।
में विभक्त है । इसके प्रथम पचीस अध्याय पञ्चविंशब्राह्मण त्रिंशन्पत-छत्तीस (धर्मशास्त्रकार ऋषियों) का मत ।
कहलाते हैं। चौबीस से तीस तक के छ: अध्यायों को
षड्विश ब्राह्मण, तीसवें अध्याय के अंतिम भाग को अद्भुत शङ्खलिखित स्मृति में इनके नाम निम्नांकित हैं :
ब्राह्मण, इकतीस से बत्तीस तक के दो अध्यायों को मन्त्रमनुर्विष्णुर्यमो दक्षः अङ्गिरोऽत्रि बृहस्पतिः ।
ब्राह्मण और अन्तिम आठ अध्यायों को छान्दोग्य ब्राह्मण आपस्तम्बश्चोशना च कात्यायनपराशरो।।
कहते हैं। षड्विंश ब्राह्मण का प्रकाशन के० क्लेम और वसिष्ठव्याससंवर्ता हारीत गौतमावपि ।
एच० एस० एलसिंग ने क्रमशः १८९४ तथा १९०८ ई० में प्रचेताः शङ्खलिखितौ याज्ञवल्क्यश्च काश्यपः ।।
कराया था। शातातपो लोमशश्च जमदग्निः प्रजापतिः ।
षण्ड-पञ्चविंश ब्राह्मण (२५.१५.३) के अनुसार एक पुरोविश्वामित्रपैठीनसी बौधायनपितामहौ ।।
हित का नाम, जिसने उसमें वर्णित सर्पसत्र में भाग छागलेयश्च जाबालो मरीचिश्च्यवनो भगः ।
लिया था। ऋष्यशृङ्गो नारदश्च षट्तिशत् स्मृतिकारकाः ॥ षण्मुख-पार्वतीनन्दन स्वामी कार्तिकेय । शाब्दिक अर्थ है
एतेषान्तु मतं यत्तु षट्त्रिंशन्मतमुच्यते ।। 'छ: मुख हैं जिसके वह' । छः मातृकाओं ने कार्तिकेय का षट्सन्दर्भ-विद्वदर और परम हरिभक्त जीव गोस्वामी पालन किया था। उनका स्तन्य पान करने के लिए कातिद्वारा रचित कृष्णभक्तिदर्शन का ग्रन्थ । यह श्रीमद्भागवत केय के छः मुख हो गये थे। की मान्यताओं का समर्थक तथा अचिन्त्य भेदाभेद दर्शन षष्टितन्त्र-सांख्य दर्शन के आचार्यों में पञ्चशिख और वार्षसम्बन्धी प्रामाणिक रचना है। चैतन्यसम्प्रदाय के भक्ति गण्य प्रसिद्ध है। योगभाष्य में भी इनका उल्लेख आया
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