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षट्चक्र-षटतीर्थ
करना 'विद्वष' है। अपने देश से भ्रंश (उखाड़) उत्पन्न करना 'उच्चाटन' है। प्राणियों का प्राण हरण कर लेना 'मारण' कहा गया है । इनके देवताओं, दिशा, काल आदि को जानकर इन कर्मों की साधना करना चाहिए । रति, वाणी, रमा, ज्येष्ठा, दुर्गा और काली क्रमशः इनकी देवता हैं । कर्म के आदि में इनकी पूजा करनी चाहिए। ईश, चन्द्र, इन्द्र, निऋति, वायु और अग्नि इनको दिशाएँ हैं । सूर्योदय से प्रारम्भ कर दस घटिका के क्रम से वसन्त आदि ऋतुएँ दिन-रात में प्रति दिन होती हैं। वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद, हेमन्त और शिशिर ये ऋतुएँ हैं ।]
(३) घेरण्डसंहिता में छ: प्रकार के हठयोग के अङ्गों को भी षट्कर्म कहा गया है :
धौतिर्वस्तिस्तथा नेतिौलिकी त्राटकस्तथा ।
कपालभातिश्चैतानि षट्कर्माणि समाचरेत् ॥ [ (१) धौति (२) वस्ति (३) नेति (४) नौलिकी (५) त्राटक और (६) कपालभाति इन छ: कर्मों का आचरण करना चाहिए। षट्चक्र-शरीर में स्थित छ: चक्रों के समाहार को षट्चक्र कहते हैं । पद्म पुराण (स्वर्ग खण्ड, अध्याय २७) में इनका वर्णन इस प्रकार है:
सप्त पद्मानि तव सन्ति लोका इव प्रभो । गुदे पृथ्वीसमं चक्रं हरिद्वर्णं चतुर्दलम् ।। लिंगे तु षड्दलं चक्रं स्वाधिष्ठानमिति स्मृतम् । त्रिलोकवह्निनिलयं तप्तचामीकरप्रभम् ।। नाभौ दशदलं चक्रं कुण्डलिन्यां समन्वितम् । नीलाञ्जननिभं ब्रह्मस्थानं पूर्वकमन्दिरम् ।। मणिपूराभिधं स्वच्छं जलस्थानं प्रकीर्तितम् । उद्यदादित्यसंकाशं हृदि चक्रमनाहतम् ।। कुम्भकाख्यं द्वादशारं वैष्णवं वायुमन्दिरम् । कण्ठे विशुद्धशरणं षोडशारं पुरोदयम् ।। शाम्भवीवरचक्राख्यं चन्द्रविन्दुविभूषितम् । षष्ठमाज्ञालयं चक्रं द्विदलं श्वेतमुत्तमम् ॥ राधाचक्रमिति ख्यातं मनःस्थानं प्रकीर्तितम् । सहस्रदलमेकार्णं परमात्मप्रकाशकम् ।। नित्यं ज्ञानमयं सत्यं सहस्रादित्य सन्निभम् ।
षट् चक्राणीह भेद्यानि नैतद् भेद्य कथञ्चन ।। [हे प्रभो ! वहाँ (शरीर में) सात पद्म (कमल) सात लोकों के समान होते हैं। गुदा में पृथ्वी के समान, मूला
धार' चक्र होता है, जो हरिद्वर्ण और चार दल वाला है। लिङ्ग में षड्दल चक्र होता है, जिसको 'स्वाधिष्ठान' कहते हैं । वह तीनों लोकों में व्याप्त अग्नि का निवास है और तप्त सोने के समान प्रभा वाला है । नाभि में दशदल चक्र कुण्डलिनी में समन्वित है। यह नीलाञ्जन के समान, ब्रह्मस्थान और उसका मन्दिर है। इसे 'मणिपूर' कहते हैं, जो स्वच्छ जल के समान प्रसिद्ध है। हदय में 'अनाहतचक्र' है जो उदय होते हुए सूर्य के समान प्रकाशमान है। इसका नाम कुम्भत है, यह द्वादश अरों वाला वैष्णव और वायु-मन्दिर है । कण्ड में 'विशुद्धशरण' षोडशार, पुरोदय, शाम्भवीवरचक्र है जो चन्द्रबिन्दु से विभूषित है। छठा 'आज्ञालय' चक्र है जो दो दल वाला और श्वेतवर्ण है । यह राधा चक्र नाम से भी प्रसिद्ध है। यह मन का स्थान है । ये ही षट्चक्र (जानार्थ क्रमशः) भेदन करने योग्य है; किन्तु सहस्रदल चक्र परमात्मा से प्रकाशित है। यह नित्य, ज्ञानमय, सत्य और सहस्र सूर्यों के समान प्रकाशमान है। इसका भेदन नहीं होता । ] षटतीर्थ-सर्वसाधारण के लिए छ: तीर्थ सदा सर्वत्र सुलभ हैं :
(१) भक्ततीर्थ-धर्मराज युधिष्ठिर विदुरजी से कहते हैं, "आप जैसे भागवत (भगवान् के प्रिय भक्त) स्वयं ही तीर्थ रूप होते हैं। आप लोग अपने हृदय में विराजित भगवान् के द्वारा तीर्थों को भी महातीर्थ बनाते हुए विचरण करते है।
(२) गुरुतीर्थ-सूर्य दिन में प्रकाश करता है, चन्द्रमा रात्रि में प्रकाशित होता है और दीपक घर में उजाला करता है। परन्तु गुरु शिष्य के हृदय में रात-दिन सदा ही प्रकाश फैलाते रहते हैं । वे शिष्य के सम्पूर्ण अज्ञानमय अन्धकार का नाश कर देते हैं। अतएव शिष्यों के लिए गुरु परम तीर्थ है।
(३) माता तीर्थ, (४) पिता-तीर्थ-पुत्रों को इस लोक और परलोक में कल्याणकारी माता-पिता के समान कोई तीर्थ नहीं है । पुत्रों के लिए माता-पिता का पूजन ही धर्म है । वही तीर्थ है । वही मोक्ष है । वही जन्म का शुभ फल है ।
(५) पतितीर्थ-जो स्त्री पति के दाहिने चरण को प्रयाग और वाम चरण को पुष्कर मानकर पति के चरणोदक से स्नान करती है, उसे उन तीर्थों के स्नान का पुण्य
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