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श्वेतकेतु-षटकर्म
स्मार्तो वर्णाश्रमाचारो यमैश्च नियमैर्यतः ।
तन्त्रशास्त्र में इसके बहुत से पर्याय बतलाये गये हैं : पूर्वेभ्यो वेदयित्वेह श्रौतं सप्तर्षयोऽब्रुवन् ।। षः श्वेतो वासुदेवश्च पीता प्राज्ञा विनायकः । ऋचो यजूंषि सामानि ब्रह्मणोऽङ्गानि सा श्रुतिः ।
परमेठी वामबाहुः श्रेष्ठो गर्भविमोचनः । मन्वन्तरस्यातीतस्य स्मृत्वा तन्मनुरब्रवीत् ॥
लम्बोदरो यमौ लेशः कामधुक् कामधूमकः । ततः स्मातः स्मृतो धर्मो वर्णाश्रमविभागशः ।
सुश्री उश्ना वृषो लज्जा मरुद्भक्ष्यः प्रियः शिवः । एवं वै द्विविधो धर्मः शिष्टाचारः स उच्यते ।। सूर्यात्मा जठरः क्रोधो मत्ता वक्षी विहारिणी। इज्या वेदात्मकः श्रीतः स्मार्तो वर्णाश्रमात्मकः ।। कलकण्ठो मध्यभिन्ना युद्धात्मा मलपूः शिरः ॥
[धर्मज्ञ ब्राह्मणों द्वारा दो प्रकार का, श्रोत तथा स्मार्त, षट्कर्म-(१) कुछ धार्मिक विभागों के छः प्रधान कृत्य । धर्म विहित है । दान, अग्निहोत्र, इनसे सम्बद्ध यज्ञ श्रौत ब्राह्मणों के मुख्य छ: कर्तव्य षट्कर्म कहलाते हैं । ये हैं (१) धर्म के लक्षण हैं । यम और नियमों के सहित वर्ण तथा
अध्ययन (२) अध्यापन (३) यजन (४) याजन (५) दान आश्रम का आचार स्मार्त कहलाता है। सप्तषियों ने पूर्ण और (६) प्रतिग्रह। मनु आदि स्मृतियों में इन कर्मों का ( ऋषियों ) से जानकर श्रौत धर्म का प्रवचन किया।
विस्तृत वर्णन पाया जाता है : ऋक्, यजुष्, साम, ब्राह्मण तथा वेदाङ्ग ये श्रुति कहलाते
इज्याध्ययनदानानि याजनाध्यापने तथा । हैं । मनु ने अतीत मन्वन्तरों के धर्म का स्मरण कर स्मात
प्रतिग्रहश्च तैर्युक्तः षट्कर्मा विप्र उच्यते ।। धर्म का विधान किया । इसीलिए यह स्मार्त ( स्मृति से
(२) आगम और तन्त्र में छः प्रकार के शान्ति आदि उत्पन्न ) धर्म कहलाता है। यह वर्णाश्रम के विभागक्रम
कर्मी को षट्कर्म कहते हैं। शारदातिलक में इनका से है। इस प्रकार निश्चय ही यह दो प्रकार का धर्म
वर्णन पाया जाता है : शिष्टाचार कहलाता है। ( संक्षेप में) यज्ञ और वेद
शान्ति-वश्य-स्तम्भनानि विद्वेषोच्चाटने ततः । सम्बन्धी आचार श्रोत तथा वर्णाश्रम सम्बन्धी आचार
मारणान्तानि शंसन्ति षट्कर्माणि मनीषिणः ।। स्मार्त कहलाता है । ]
रोग-कृत्या-ग्रहादीनां निरासः शान्तिरीरिता । श्वेतकेतु-श्वेतकेतु की कथा उपनिषद् में मूलतः आती
वश्यं जनानां सर्वेषां विधेयत्वमुदीरितम् ।। है। ये उद्दालक के पुत्र थे। एक बार अतिथिसत्कार में
प्रवत्तिरोधः सर्गेषां स्तम्भनं तदुदाहृतम् । उद्दालक ने अपनी पत्नी को भी अर्पित कर दिया। इस
स्निग्धानां क्लेशजननं मिथो विद्वेषणं मतम् ॥ दूषित प्रथा का विरोध श्वेतकेतु ने किया । वास्तव में
उच्चाटनं स्वदेशादेभ्रंशनं परिकीर्तितम् । कुछ पर्वतीय आरण्यक लोगों में आदिम जीवन के कुछ अव
प्राणिनां प्राणहरणं मारणं तदुदाहृतम ॥ शेष कहीं-कहीं अभी चले आ रहे थे, जिनके अनुसार स्त्रियाँ
स्वदेवतादिक्कालादीन् ज्ञात्वा कर्माणि साधयेत् ।। अपने पति के अतिरिक्त अन्य पुरुषों के साथ भी सम्बन्ध
रतिर्वाणी रमा ज्येष्ठा दुर्गा काली यथा क्रमम । कर सकती थीं। इस प्रथा को श्वेतकेतु ने बन्द कराया।
षट्कर्मदेवता प्रोक्ताः कर्मादौ ताः प्रपूजयेत् ।। महाभारत (१.१२२.९-२० ) में इसका उल्लेख है ।
ईश-चन्द्रेन्द्र-निऋति-वाय्वाग्नीनान्दिशो मताः ।
सूर्योदयं समारभ्य घटिकादशकं क्रमात ॥ ष-ऊष्म वर्णों का द्वितीय अक्षर । कामधेनुतन्त्र में इसके
ऋतवः स्युनसन्ताद्या अहोरात्र दिने दिने । स्वरूप का वर्णन निम्नांकित है :
वसन्त-ग्रीष्म-वर्षाख्य-शरद-हेमन्त-शैशिराः ॥ षकारं शृणु चानङ्गि अष्टकोणमयं सदा । [(१) शान्ति (२) वश्य ( वशीकरण ) (३) स्तम्भन, रक्तचन्द्रप्रतीकाशं स्वयं परमकुण्डली ॥ (४) विद्वेष (५) उच्चाटन और (६) मारण इनको चतुर्नर्गमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा । मनीषी लोग षट् कर्म कहते हैं। रोग, कृत्या, ग्रह आदि रजः सत्त्वतमोयुक्तं त्रिशक्तिसहितं सदा ।। का निवारण 'शान्ति' कहलाता है। सब जनों का सेवक त्रिबिन्दुसहितं वर्णम् आत्मादितत्त्वसंयुतम् । हो जाना 'वश्य' कहा गया है । सबकी प्रवृत्ति का रोध सर्वदेवमयं वर्णं हृदि भावय पानति ॥ 'स्तम्भन' कहलाता है। मित्रों के बीच में क्लेग उत्पन्न
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