________________
যুক্ষন-নূর शुक्रवत-शुक्रवार के दिन ज्येष्ठा नक्षत्र होने पर इस व्रत के आचरण से स्वर्ग प्राप्त होता है, साथ ही मनुष्य को नक्त विधि से आहार करना चाहिए। यदि व्रतकर्ता के पूर्वज भी स्वर्ग प्राप्त कर लेते हैं। व्रत के ऐसे ही शुक्रवार को सप्तमी पड़े तो चाँदी या कांसे के अन्त में एक गौ के साथ-साथ जलधेनु, घृतधेनु एवं मधुधेनु पात्र में सुवर्ण की शुक्र की मूर्ति रखकर इसकी श्वेत वस्त्रों का दान करना चाहिए। इससे वह समस्त पापों से मुक्त तथा चन्दन के प्रलेप से पूजा की जानी चाहिए। प्रतिमा हो जाता है। के सम्मुख खीर तथा घी रखकर थोड़ी देर बाद समस्त शुनःशेप-वेदसूक्त रचयिता एक ऋषिकुमार। ये ऋचीक वस्तुओं का दान कर दिया जाय तथा दान के समय शुक्र मुनि के पुत्र थे, यज्ञार्थ अम्बरीष द्वारा खरीदे गये थे। से प्रार्थना की जाय कि 'हे शुक्र, हमारी समस्त बुराइयों। विश्वामित्र ने इनकी रक्षा की थी। वाल्मोकिरामायण (बालएवं कुग्रहों के दुष्प्रभाव को दूर करके सुस्वास्थ्य दीर्घायु काण्ड, ६१ सर्ग) में शुनःशेप की कथा इस प्रकार दी हुइ प्रदान कीजिए।'
है--'राजा हरिश्चन्द्र वरुण के शाप के कारण जलोदर रोग शुक्ल यजुर्वेद-यजुर्वेद के दो मुख्य विभाग हैं, शुक्ल से पीड़ित था। वरुण की तुष्टि के लिए यज्ञार्थ उसने यजुर्वेद तथा कृष्ण यजुर्वेद । जिसमें शुद्ध पद्यात्मक अजीगत के पुत्र शुनःशेप को बलिपशु के रूप में प्राप्त (छन्दोबद्ध) मन्त्र हैं उसे शुक्ल यजुर्वेद कहा जाता है । किया । करुणार्द्र होकर विश्वामित्र ने अत्यन्त व्याकुल शुन:जिस भाग में मन्त्र तथा विधि के गद्य का मिश्रण है उसे शेप को देखा और उसको मुक्त किया। तब से शुनःशेप कृष्ण यजुर्वेद कहते हैं । दे० 'यजुर्वेद' ।
विश्वामित्र के पुत्र कहलाये। शुद्ध-शुचि, पवित्र, पावन, निष्कल्मष वस्तु । शरीर की ऋग्वेद के वरुण सूक्त के आधार पर शुनःशुद्धता-अशुद्धता का विस्तृत वर्णन पद्मपुराण (उन्नीसवें शेप की कथा का विकास हुआ। इसमें शुनःशेप द्वारा अध्याय, उत्तर खण्ड) में पाया जाता है।
पाप से मुक्त होने की प्रार्थना की गयी है । इसका आख्यान शुद्धि-धार्मिक कृत्य के लिए अर्हता उत्पन्न करने पहले ऐतरेय ब्राह्मण में आया है और फिर वहाँ से पुराणों वाले प्रयोजक संकारविशेष को शुद्धि कहते हैं। में इसका विस्तार हआ। जननाशौच तथा मरणाशौच से शुद्ध होने की क्रिया को शुम्भ-एक दानव, जो गवेष्टी का पुत्र और प्रह्लाद का भी शद्धि कहते हैं। वस्तुओं को शुद्ध करने का नाम भी पौत्र था। यह दुर्गा के द्वारा मारा गया। अग्निपुराण शद्धि है। विस्तृत वर्णन 'शुद्धितत्त्व' नामक ग्रन्थ (कश्यपीय सर्गाध्याय), वामनपुराण (५२ अध्याय) तथा में देखिए ।
मार्कण्डेय पुराण (देवीमाहात्म्य, १० अध्याय) में शुम्भ शद्धिव्रत-शरद् ऋतु के अन्तिम पाँच दिन अथवा की कथा पायी जाती है। बारहों महीनों की एकादशी को शुद्धिव्रत किया जाय। शकरक्षेत्र कहा जाता है कि यहाँ गोस्वामी तुलसीदासजी यह तिथिव्रत है। हरि इसके देवता हैं। जिस समय समुद्र का गुरुद्वारा था । दे० 'शौकर क्षेत्र'। मंथन हआ था, उसमें से पाँच गौएँ निकली थीं जिनकी शब-चार वर्णों में चतुर्थ वर्ण। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त के अंगज वस्तुएँ पवित्र मानी गयीं । यथा गोमय, रोचना, अनुसार विराट् पुरुष के पैरों से इसकी उत्पत्ति हुई थी। (पीत चूर्ण), दुग्ध, गोमूत्र, दही तथा घी। गौ के गोबर समाज की सावयव कल्पना के आधार पर समाज का यह से बिल्व वृक्ष अथवा श्रीवृक्ष उत्पन्न हुआ। लक्ष्मी के अविभाज्य अङ्ग है। पैरों के समान चलना अथवा प्रेष्य वास करने से इसे श्रीवृक्ष कहते हैं। गोरोचना से समस्त होना इसका कर्तव्य है। स्मृतियों के अनुसार प्रथम तीन पुनीत इच्छाएँ उत्पन्न हुई। गोमूत्र से गुग्गुलु तथा संसार वर्णों की सेवा इसका कार्य और जीविका है। इसका एक की समस्त शक्ति गौ के दूध से उत्पन्न हुई। समस्त पुनीत मात्र आश्रम गार्हस्थ्य है। वस्तुएँ गौ के दही से उत्पन्न हुई तथा समस्त सौन्दर्य धर्मशास्त्र में चारों वर्गों के लिए जिन षटकर्मों का गौ के घी से उत्पन्न हुआ। इसलिए हरि की प्रतिमा विधान है (पठन-पाठन, यजन-याजन तथा दान-प्रतिग्रह) को दध, दही, घी से स्नान कराकर उसका अगस्ति के उनमें से शद्र को पठन (वैदिक मन्त्रों को छोड़कर), यजन पुष्पों, गुग्गुलु तथा दीपक जलाकर पूजन करना चाहिए। (निमन्त्र) तथा दान ( शुद्धि ) का अधिकार है। सेवा
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org