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शौकर-श्यामा
और भक्ति का सुन्दर समन्वय है । अद्वैत वेदान्त में जगत् मानते हैं । किन्तु वराह पुराण का शौकर क्षेत्र तो ( यत्र ब्रह्म का विवर्त (भ्रम ) है। काश्मीर शैवमत में जगत् भागीरथी गङ्गा) गङ्गा के किनारे ही होना चाहिए । ब्रह्म का स्वातन्त्र्य अथवा आभास है। काश्मीर शैव शौच-एकादशी तत्त्व में उद्धृत बृहस्पति के अनुसार दर्शन की दो प्रमुख शाखाएँ है-स्पन्द शास्त्र और
शौच (शुद्धि) की परिभाषा इस प्रकार है :
और प्रत्यभिज्ञा शास्त्र । पहली शाखा के मुख्य ग्रन्थ 'शिव
अभक्ष्यपरिहारस्तु संसर्गश्चाप्यनिन्दितः । दृष्टि' ( सोमानन्द कृत ), 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिका'
स्वधर्म च व्यवस्थानं शौचमेतत् प्रकीर्तितम् ।। (उत्पलाचार्य कृत), 'ईश्वरप्रत्यभिज्ञाकारिकाविमशिनी' और ( अभिनवगुप्त रचित ) 'तन्त्रालोक' हैं। दोनों
[अभक्ष्य का परित्याग, निन्दित पुरुषों के संसर्ग का
परित्याग, अपने धर्म में व्यवस्थिति (दृढ़ता) को शौच शाखाओं में कोई तात्त्विक भेद नहीं है। केवल मार्ग का भेद
कहते हैं। है । स्पन्द शास्त्र में ईश्वराय की अनुभूति का मार्ग ईश्वरदर्शन और उसके द्वारा मलनिवारण है। प्रत्य- गरुडपुराण (११० अध्याय) में शौच की निम्नलिखित भिज्ञाशास्त्र में ईश्वर के रूप में अपनी प्रत्यभिज्ञा (पुनरनु
परिभाषा है : भूति) ही वह मार्ग है। इन दोनों शाखाओं के दर्शन को
सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं विशिष्यते । 'त्रिकदर्शन' अथवा 'ईश्वराद्वयवाद' कहा जाता है।
योऽर्थार्थेरशुचिः शौचान्न मुदा वारिणा शुचिः ।।
सत्यशौचं मनःशौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः । वीरशैव मत के संस्थापक महात्मा बसव थे। इस सम्प्रदाय
सर्वभूतदा शौचं जलशौचन्तु पञ्चमम् । के मुख्य ग्रन्थ ब्रह्मसूत्र पर 'श्रीकरभाष्य' और 'सिद्धान्त
यस्य सत्यञ्च शौचञ्च तस्य स्वर्गो न दुर्लभः ।। शिखामणि' है । इनके अनुसार अन्तिम तत्त्व अद्वैत नहीं,
और भी कहा है : अपितु विशिष्टाद्वैत है। यह सम्प्रदाय मानता है कि परम
यावता शद्धि मन्येत तावच्छौचं समाचरेत् । तत्त्व शिव पूर्ण अहन्तारूप अथवा पूर्ण स्वातन्त्र्यरूप है।
प्रमाणं शौचसंख्याया न शिष्टरुपदिश्यते ॥ स्थूल चिदचिच्छक्ति विशिष्ट जीव और सूक्ष्म चिदचिच्छक्ति विशिष्ट शिव का अद्वैत है। वीरशैव मत को लिङ्गायत
शौचन्तु द्विविधं प्रोक्तं बाह्यमाभ्यन्तरं तथा । भी कहते हैं, क्योंकि इसके अनुयायी बराबर शिवलिङ्ग
मृज्जलाभ्यां स्मृतं बाह्य भावशुद्धिरथान्तरम् ॥ गले में धारण करते हैं । ( अन्य शैव सम्प्रदायों को यथा- जननाशीच, मरणाशौच, स्पर्शाशौच आदि अनेक प्रकार स्थान देखिए ।)
के अशौच से शौच प्राप्त करने की विधियाँ पुराणों और शौकर-शकरक्षेत्र का ही पर्याय । यह गङ्गातटवर्ती प्रसिद्ध
परवर्ती स्मृतियों में भरी पड़ी हैं । दे० पद्मपुराण, उत्तरतीर्थ है । वराहपुराणस्थ शौकरतीर्थमाहात्म्य के 'आदित्य
खण्ड, १०९ अध्याय; कूर्मपुराण, उपविभाग, २२ अध्याय । वरप्रदान-गृध्रजम्बुकोपाख्यान' नामक अध्याय में इसका श्मशान-शवसंस्कार का स्थान श्मनां (शवानां शानं वर्णन पाया जाता है:
शयनं यत्र) । इसके पर्याय हैं पितृवन, रुद्राक्रीड, दाहसर
आदि । वाराणसी को महाश्मशान कहा गया है : शृणु मे परम गुह्यं यत्त्वया परिपुच्छितम् ।
'वाराणसीति विख्याता रुद्रावास इति द्विजाः । मम क्षेत्रं परञ्चैव शुद्धं भागवतप्रियम् ।।
महाश्मशानमित्येवं प्रोक्तमानन्दकाननम् ।।' परं कोकामुखं स्थानं तथा कुब्जाम्रकं परम् । परं शौकरनं स्थानं सर्ग संसारमोक्षणम् ॥
श्मशान से लौटने पर शौच आदि की विधि शास्त्रों में यत्र संस्था च मे देवि ह्यद्धृतासि रसातलात् ।
निर्दिष्ट है। दे० वराहपुराण, श्मशानप्रवेशापराधप्राययत्र भागीरथी गङ्गा मम शौकरवे स्थिता ॥
श्चित्त नामाध्याय । अधिकांश विद्वानों के विचार में आधुनिक 'सोरों' श्मशानकाली-काली का एक विशेष रूप । दे० कालीतन्त्र । ( एटा जिला ) ही शौकर अथवा शूकर क्षेत्र है। कुछ श्यामा-कालिका अथवा दुर्गा । श्यामा की उत्पत्ति का वर्णन लोग इसको अयोध्या के पास वाराहक्षेत्र के स्थान पर इस प्रकार पाया जाता है :
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