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शम्बर-शम्भुदेव
जिस
है। उसके अभाव में ज्ञान का प्रकाशकत्व नष्ट हो जाता है। सब दृश्य जगत् और उसके पदार्य कल्पना मात्र हैं, विचारों की प्रतिच्छाया अथवा प्रतिबिम्ब हैं। इस प्रकार शब्द ही सत्य है; बाह्य जगत् अवास्तविक है। वैयाकरणों का यह सिद्धान्त निम्नांकित उपनिषद्वाक्य का भाष्य है : 'वाचारम्भणम् विकारो नामधेयम् मृत्तिकेत्येव सत्यम् ।' यह मानते हए कि शब्द से अर्थबोध होता है, यह प्रश्न उठता है कि क्या केवल ध्वनि मात्र से अर्थबोध होता है ? उदाहरण के लिए 'गौः' शब्द लीजिए । यह तीन ध्वनियों से बना है-ग् + औ+ स् । यह कहना कठिन है कि आदि, मध्य अथवा अन्तिम ध्वनि से अर्थवोध होता है।
नैयायिकों की आपत्ति है कि एक ध्वनि एक-दो क्षण से अधिक अस्तित्व में नहीं रहती; जब अन्तिम ध्वनि का उच्चारण होता है तब तक आदि और मध्य ध्वनियाँ लत हो जाती है । नैयायिकों के अनुसार प्रथम दो ध्वनियों के संस्कार के साथ जब अन्तिम ध्वनि मिलती है तब अर्थ- बोध होता है । इससे वैयाकरणों की कठिनाई तो दूर हो जाती है परन्तु दूसरा दोष उत्पन्न हो जाता है। नैयायिक और भाषाविज्ञानी दोनों मानते हैं कि भाषा की इकाई वाक्य है और अर्थबोध के लिए वाक्य में प्रतिज्ञा की एकता होनी चाहिए। यदि प्रथम ध्वनियों का संस्कार और अन्तिम ध्वनि दो वस्तुएँ हैं तो फिर एकता कैसी होगी?
मीमांसकों के अनुसार वर्ण नित्य हैं और ध्वनि से व्यक्त किये जाते हैं। मीमांसकों की अर्थप्रत्यायकत्व प्रक्रिया नैयायिकों से मिलती-जुलती है । परन्तु वर्णों की ऐक्यानभति में उन्हें कोई कठिनाई नहीं जान पड़ती, क्योंकि सभी वर्ण नित्य है। किन्तु यह आपत्ति बनी रहती है कि वर्णों की अनुभूति क्षणिक है और इस परिस्थिति में सभी वर्णों की एकता शक्य नहीं है । वैयाकरणों ने इस कठिनाई को दूर करने के लिए वाचकता का एक नया अधिष्ठान ढूंढ़ निकाला, वह था स्फोटवाद । 'स्फोट' भिन्न शब्दों और अर्थों में एक होकर भी स्थायी रूप से व्यक्त होता है । अतः वाक्य में एकतानता बनी रहती है। वैयाकरणों ने इस स्फोट का वाचक प्रणव को माना, जिससे सम्पूर्ण विश्व को अभिव्यक्ति हुई है । __ शब्दाद्वैतवाद का पूर्ण विकास और पूर्ण संगति तब हुई जब इसका सम्बन्ध अद्वैत वेदान्त (शाङ्कर वेदान्त) से
जोड़ा गया । शब्दतत्त्व उसी प्रकार विश्व का कारण है जिस प्रकार ब्रह्म विश्व का कारण है। इस प्रकार शब्द को शब्दब्रह्म मान लिया गया। शब्दब्रह्मवाद (शब्दाद्वैतवाद) का विवेचन भर्तहरि ने अपने वाक्यपदीय में निम्नांकित प्रकार से किया है :
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं यदक्षरम् । विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।। एकस्य सर्वबीजस्य यस्य चेयमनेकधा ।
भोक्त-भोक्तव्यरूपेण भोगरूपेण च स्थितिः ॥ जिस प्रकार शाङ्कर वेदान्त में विश्व ब्रह्म का विवर्त माना गया है उसी प्रकार शब्दाद्वैतवाद के अनुसार यह विश्व शब्द का विवर्त है । यह वाद परिणामवाद (सांख्य) है और आरम्भवाद (न्याय) का प्रत्याख्यान करता है।
शब्द और अर्थ के बीच का सम्बन्ध नित्य है । शब्दब्रह्म की अनुभूति के लिए शब्द के स्वरूप को जानना आवश्यक है। शब्द चार रूपों में प्रकट होता है : परा, पश्यन्ती, मध्यमा और वैखरी। इनमें से तीन गुप्त रहती है; परा मूलाधार में, पश्यन्ती नाभिस्थान में और मध्यमा हृदयावकाश में निवास करती है। इनकी अनुभूति और ज्ञान केवल ब्रह्मज्ञानी मनीषियों को होता है । इनमें चौथी वैखरी वाणी ही बाहर व्यक्त होती है जिसको मनुष्य बोलते हैं। वास्तव में शब्दब्रह्म की उपासना ब्रह्म की ही उपासना है। शब्दब्रह्म की अनुभूति प्रणव की उपासना और यौगिक प्रक्रिया द्वारा नाभिचक्र में स्थित कुण्डलिनी को जागृत करने से होती है। शम्बर-इन्द्र के एक शत्रु का नाम । इसका उल्लेख शुश्न, पिघु एवं वचिन के साथ, दास के रूप में तथा कुलितर (ऋ० ६.२६.५) के पुत्र के रूप में हआ है । इसके नब्बे, निन्यानबे तथा सौ दुर्ग कहे गये हैं। इसका सबसे बड़ा शत्रु दिवोदास अतिथिग्व था, जिसने इन्द्र की सहायता से उस पर विजय प्राप्त की। यह कहना कठिन है कि शम्बर वास्तविक व्यक्ति था या नहीं। हिलब्रण्ट इसको दिवोदास का विरोधी सामन्त मानते हैं। वास्तव में शम्बर पर्वतवासी शत्रु था, जिससे दिवोदास को युद्ध करना पड़ा। शम्भुदेव-शैव सिद्धान्त के सोलहवीं शती के एक प्रसिद्ध आचार्य । इन्होंने अपने मत के नियमों को दर्शाने के लिए शैवसिद्धान्तदीपिका तथा शम्भुपद्धति नामक दो ग्रन्थों की रचना की।
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