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शारदापूजा - शिक्षा
देशिक हैं । ये ग्यारहवीं शती में उत्पन्न हुए थे । इस ग्रन्थ में केवल मन्त्र एवं यातु (जादू) हैं, क्रियाएँ बहुत कम हैं । यह सरस्वती से सम्बन्धित है जो शारदा भी कहलाती हैं । यह मन्त्रों का वर्गीकरण उपस्थित करता है, उनके प्रयोगार्थ प्रारम्भिक दीक्षा तथा याज्ञिक अग्नि में होम करने के लिए मन्त्रों का प्रयोजन बतलाता है । मुद्राओं तथा अनेक यन्त्रों का वर्णन करता है। अन्तिम अध्याय में तान्त्रिक योग है।
शारदापूजा -- शरद् काल की नवमी तिथि को देवताओं के द्वारा दुर्गा देवी का आवाहन हुआ था, इसलिए ये शारदा कहलाती हैं
शरत्काले पुरा यस्माद् नवम्यां बोधिता सुरैः । शारदा सा समाख्याता पीठे लोके च नामतः ।। शरत्कालीन दुर्गापूजा का नाम ही शारदापूजा है। देवीभागवत (अ० २९-३०) में शारदापूजा का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । शारदामठ- स्वामी शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित चार मठों में से एक । द्वारकापुरी के मठ का नाम शारदामठ या शारदापीठ है।
शारीरक ब्रह्माण्ड या पिण्ड शरीर में निवास करने वाला अद्वैत आत्मा ही शारीर है। उसको आधार मानकर लिखे गये ग्रन्थ को 'शारीरक' कहते हैं । वेदव्यासकृत वेदान्तसूत्रों को ही 'शारीरकसूत्र' कहा जाता है । इनके ऊपर लिखे गये शाङ्करभाष्य का नाम भी 'शारीरक भाष्य' है । शालग्राम - विष्णुमूर्ति का प्रतीक गोल शिलाखण्ड नेपाल
की गण्डकी अथवा नारायणी नदी में प्राप्त, वज्रकीट से कृत चक्रयुक्त शिला, अथवा द्वारका में प्राप्त ऐसी ही ( गोमती चक्र ) शिला शालग्राम कहलाती है । इसके लक्षण और माहात्म्य आदि पुराणों में विस्तार से वर्णित हैं। पद्मपुराण के पातालखण्ड में इसका विशेष वर्णन है । शास्त्र शास्त्र वह है जिससे शासन आदेश अथवा शिक्षण किया जाता है। शास्त्र की उत्पत्ति का वर्णन मत्स्यपुराण (अ० ३) में इस प्रकार दिया हुआ है
पुराणं सर्वशास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम् । नित्यशब्दमयं पुण्यं शतकोटिप्रविस्तरम् ॥ अनन्तरञ्च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिःसृताः । मीमांसा न्याय विद्याश्च प्रमाणं तर्कसंयुतम् ।। कार्याकार्य में शास्त्र ही प्रमाण माना गया है।
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शास्त्रदर्पण इस वेदान्तग्रन्थ के रचयिता आचार्य अमलानन्द हैं । इसमें ब्रह्मसूत्र के अधिकरणों की व्याख्या की गयी है । इसका रचनाकाल तेरहवीं शती का उत्तरार्ध है । शिक्षा-छ दाजों (शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, ज्योतिष और छन्द) में से प्रथम वेदाङ्ग । इसको वेदों की नासिका कहा गया है। यह शुद्ध उच्चारण (ध्वनि) का शास्त्र है। स्वर और व्यंजनों का शुद्ध उच्चारण शब्दों के अर्थ का ठीक-ठीक बोध कराता है। मन्त्रों के ठीक उच्चारण से ही उनका मनोवांछित प्रभाव पड़ता है । वैदिक मन्त्रों के उच्चारण में स्वर प्रक्रिया का विशेष महत्त्व है ।
यद्यपि यह शास्त्र बहुत पुराना है, तथापि इस विषय पर लिखे हुए ग्रन्थ बहुत कम मिलते है। एक अनुभूति के अनुसार जैगीषव्य के शिष्य बाभ्रव्य इस शास्त्र के प्रवर्तक थे। ऋग्वेद के क्रमपाठ की व्यवस्था भी इन्होंने ही की थी। महाभारत (शान्ति, २४२ १०४) के अनुसार आचार्य गालव ने एक शिक्षाशास्त्रीय ग्रन्थ का निर्माण किया था । इनका उल्लेख अष्टाध्यायी में भी पाया जाता है । वास्तव में पाञ्चाल बाभ्रव्य का ही दूसरा नाम गालव था । भारद्वाज ऋषि प्रणीत 'भारद्वाजशिक्षा' नामक ग्रन्थ 'भण्डारकर रिसर्व इंस्टीट्यूट' पूना से प्रकाशित हुआ है। परन्तु यह बहुत प्राचीन नहीं है। 'बारायणी शिक्षा' की एक हस्तलिखित प्रति डॉ० कीलहार्न को कश्मीर में प्राप्त हुई थी। राजशेखर की काव्यमीमांसा में पाणिनि के पूर्ववर्ती शब्दवि आचार्य आपिशलि का उल्लेख हुआ है । पाणिनि के समय तक शिक्षाशास्त्र का पूर्ण विकास हो चुका था । 'पाणिनीय शिक्षा' इस विषय का प्रथम ग्रन्थ है जिसमें इस शास्त्र का सुव्यवस्थित विवेचन हुआ है । इस नाम से उपलब्ध ग्रन्थ का सम्पादन और प्रकाशन आर्य समाज के प्रवर्तक स्वामी दयानन्द सरस्वती ने किया था। वाराणसी से एक ग्रन्थ 'शिक्षासंग्रह' के नाम से प्रकाशित हुआ था, जिसमें गौतमशिक्षा, नारदीय शिक्षा, पाण्डुकीय शिक्षा और भारद्वाज शिक्षा सम्मिलित हैं । मूलतः वेदों के अलग-अलग शिक्षाग्रन्थ थे । आज केवल यजुर्वेद की याज्ञवल्क्यशिक्षा, सामवेद की नारदशिक्षा, अथर्ववेद की माण्डूकी शिक्षा ही उपलब्ध हैं । ऋग्वेद का कोई स्वतन्त्र शिक्षा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है; उसके उच्चारण के लिए पाणिनीय शिक्षा का ही उपयोग किया जाता है ।
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