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शपथ-शब्दाद्वैतवाद
होता है । किसी लोहपात्र अथवा मृत्तिका के कलश में, जो शब्दप्रमाण-न्याय दर्शन के अनुसार चौथा प्रमाण शब्द तेल से भरा हो तथा काले वस्त्र से आवृत हो, शनैश्चर है। 'आप्तोपदेश' अर्थात आप्त पुरुष का वाक्य शब्द प्रमाण महाराज की लौहप्रतिमा का पूजन करना चाहिए। है। भाष्यकार ने आप्त पुरुष का यह लक्षण बतलाया है ब्राह्मण व्रती के लिए मन्त्र है--"शन्नो देवीरभिष्टय कि जो साक्षात्कृतधर्मा हो, जैसा देखा, सुना, अनुभव किया आपो भवन्तु पीतये, शं यो रभिस्रवन्तु नः ।" किन्तु दूसरे हो, ठीक-ठीक वैसा ही कहने वाला हो वही आप्त है। वर्ण वाले लोगों के लिए पौराणिक मन्त्रों का विधान है।
शब्दसमूह वाक्य होता है, शब्द वह है जो अर्थ व्यक्त शनि की (जो 'कोण' के नाम से भी विख्यात है, जो कदाचित् करने में समर्थ हो । शब्द में शक्ति ईश्वर के संकेत से ग्रीक भाषा का शब्द है) प्रार्थना तथा स्तुति की जानी
आती है । नव्य न्याय के अनुसार शब्द में शक्ति लम्बी चाहिए। इसके आचरण से शनि ग्रह के समस्त दुष्प्रभाव परम्परा से आती है। शब्द प्रमाण दो प्रकार का हैदूर हो जाते हैं।
वैदिक और लौकिक । प्रथम पूर्ण और दूसरा संदिग्ध होता (२) प्रत्येक शनिवार को शनि ग्रह के प्रीत्यर्थ किया है। लौकिक शब्द (वाक्यों में प्रयुक्त) तभी प्रामाणिक जाने वाला व्रत 'शनिव्रत' कहलाता है।
माने जाते हैं जब उनमें आकांक्षा, योग्यता, सन्निधि और शपथ-वेदसंहिताओं में यह शाप का बोधक है। ऋग्वेद
तात्पर्य हों।
शब्दाद्वैतवाद-जो दर्शन यह मानता है कि 'शब्द' ही १५ ) । परवर्ती साहित्य में शपथ का व्यवहार सौगन्ध
एकमात्र अद्वैत तत्त्व है, वह शब्दाद्वैतवाद कहलाता है।
योग मार्ग में इस दर्शन का विशेष विकास हुआ। प्रत्येक के अर्थ में ही होता है। न्यायपद्धति में 'सत्य के प्रमाण'
योगसाधक किसी न किसी रूप में शब्द की उपासना रूप से इसका प्रयोग होता है।
करता है। यह उपासना अत्यन्त प्राचीन है। प्रणव या शबरशंकरविलास-वीर शैव सम्प्रदाय से सम्बन्धित कन्नड
ओंकार के रूप में इसका बीज वेदों में वर्तमान है। उपभाषा में रचित एक ग्रन्थ, जो षडक्षरदेव (१७१४ वि०)
निषदों में प्रणवोपासना का विशेष विकास हुआ। माण्डूद्वारा प्रणीत है।
क्योपनिषद् में कहा गया है कि मूलतः प्रणव ही एक तत्त्व शबर स्वामी-पूर्वमीमांसासूत्र के भाष्यकार । भाष्य की है जो तीन प्रकार से विभक्त है। पाणिनि की अष्टाध्यायी प्राचीन लेख शैली इनके ई० पांचवीं शती में होने का में भी इस दर्शन के संकेत पाये जाते हैं। उन्होंने सिद्धान्त प्रमाण प्रस्तुत करती है। प्रभाकर एवं कुमारिल दो पूर्व- प्रतिपादन किया है कि शब्दव्यवहार अनादि और अनन्त मीमांसाचार्यों ने शबर के भाष्य पर व्याख्या-वार्तिक (सनातन) है (तदशिष्यं संज्ञाप्रमाणत्वात्, २.४.१६)। प्रस्तुत किये है । प्रभाकर शबर की आलोचना नहीं करते शब्दाद्वैत के लिए 'स्फोट' शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग हैं, जबकि कुमारिल इनसे भिन्न मत स्थापित करते हैं। महाभाष्य में पाया जाता है। सबसे पहली शब्द की शब्द-सब तरह के दृश्य पदार्थ, कल्पना अथवा भावों परिभाषा भी महाभाष्य में ही पायी जाती है : “येनोच्चाया विचारों की प्रतिच्छाया वा प्रतिबिम्ब 'शब्द' हैं। रितेन सास्ना-
लाल-ककुद-खुर-विषाणिनां सम्प्रत्ययो शब्द के अभाव में ज्ञान का स्वयंप्रकाशत्व लुप्त हो भवति स शब्दः ।" जाता है। किसी न किसी रूप में सभी योग मतानुयायी भर्तहरि ने शब्दाद्वैतवाद को 'वाक्यपदीय' में दार्शशब्द की उपासना करते हैं जो अति प्राचीन विधि है।। निक रूप दिया। इसके पश्चात् भर्तमित्र ने इस विषय पर प्रणव के रूप में इसका मूल वेद में उपलब्ध है। इसका स्फोटसिद्धि नामक ग्रन्थ लिखा। इसके अनन्तर पुण्यराज प्राचीन नाम स्फोटवाद है। प्राचीन योगियों में भर्तृहरि ने और कैयट की व्याख्याओं में इस मत का प्रतिपादन हुआ । शब्दाद्वैतवाद का प्रवर्तन किया । नाथ संप्रदाय में भी इसके प्रबल समर्थक नागेश भट्ट अठारहवीं शती में हए। शब्द पर जोर दिया गया है। आधुनिक राधास्वामी मत, वैयाकरण, नैयायिक, मीमांसक, वेदान्ती सभी ने शब्द योग साधन ही जिसका लक्ष्य है, शब्द की ही उपासना पर दार्शनिक ढंग से विचार किया है। वैयाकरणों के बतलाता है । चरनदासी पन्थ में भी शब्द का प्राधान्य है। अनुसार शब्द से ही अर्थबोध और संसार का ज्ञान होता
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