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शय्यादान-शाकद्वीपीय ब्राह्मण
शय्यादान-पर्यत और उसके उपयोगी समस्त वस्त्रों का शिव प्रलय काल में सम्पूर्ण प्रजा का संहार करते हैं, दान । यह मासोपवासव्रत तथा शर्करासप्तमी आदि अनेक अथवा भक्तों के पापों का विनाश करते हैं, अतः उनको व्रतों में वांछनीय है।
शर्व कहा जाता है। शरभ उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद । इसमें उग्र देवता शर्वाणी-शर्व (शिव) की पत्नी पार्वती का पर्याय । शरभ की महिमा और उपासना बतायी गयी है।
शस्त्र-यज्ञकर्म में होता पुरोहित का पाठ्य मन्त्रभाग, जो
उद्गाता के 'स्तोत्र' से भिन्न है । प्रातःकालीन सोमदान शरभङ्ग आश्रम-मध्य प्रदेशवर्ती वैष्णव तीर्थस्थान । विराध
सम्बन्धी शस्त्र 'आज्य' तथा 'प्रौग', मध्यकाल का 'मरुत्वकुण्ड एवं टिकरिया गांव के समीप वन में यह स्थान है।
तीय' तथा 'निष्केवल्य' एवं सान्ध्यकालीन 'वैश्वदेव' आश्रम के पास एक कुण्ड है, जिसमें नीचे से जल आता है। यहाँ राममन्दिर है, वन्य पशुओं के भय से मन्दिर का
तथा 'आग्निमारुत' कहलाता है । बाहरी द्वार संध्या के पहले बन्द कर दिया जाता है ।
शाक-(१) वनस्पति को शाक कहते हैं । ये दस प्रकार के महर्षि शरभङ्ग ने भगवान् राम के सामने यहीं अग्नि
बताये जाते हैं, यथा मूल, पत्तियाँ, अङ्कर, गुच्छक, फल, प्रज्वलित करके शरीर छोड़ा था।
शाखा, अंकुरित धान्य, छाल, फूल तथा कुकुरमुत्ता
जाति की उपज । दे. अमरकोश के टीकाकार क्षीरस्वामी इस प्रकार के तपोमय जीवन यापन करने की पद्धति
का विवरण। 'शरभंग सम्प्रदाय' कही जाती है।
(२) सप्त द्वीपों में से एक द्वीप का नाम । मत्स्यशर्करासप्तमी-चैत्र शक्ल सप्तमी को प्रातः तिलमिश्रित
पुराण (अ० १०२) में इसका विस्तृत वर्णन है : “इस जल से स्नान करना चाहिए। एक वेदी पर केसर से
द्वीप का जम्बूद्वीप से दुगुना विस्तार है। विस्तार से दूना कमलपुष्प पर सूर्य की आकृति बनाकर 'नमः सवित्रे'
चारों ओर इसका परिणाह (घेरा) है । उस द्वीप से यह बोलते हुए धूप-पुष्पादि चढ़ाये जाय । एक कलश में सुवर्ण
लवणोदधि (समुद्र) मिला हुआ है । वहाँ पुण्य जनपद है, खण्ड डालकर उसे शर्करा से भरे हए पात्र से ढककर
जहाँ दीर्घायु होकर लोग मरते हैं, दुर्भिक्ष नहीं पड़ता, पौराणिक मन्त्रों से उसकी स्थापना की जाय । फिर
क्षमा और तेज से युक्त जन हैं। मणि से भूषित सात पञ्चगव्य प्राशन तथा कलश के समीप ही शयन करना
पर्वत हैं । चाहिए। उस समय धीमे स्वर से सौरमन्त्रों (ऋग्वेद १.५०) का पाठ करना चाहिए । अष्टमी के दिन पूर्वोक्त सभी
शाकटायन-शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्यसूत्र और उसकी वस्तुओं का दान करना चाहिए। इस दिन शर्करा, घृत
अनुक्रमणी भी कात्यायन के नाम से प्रसिद्ध है । इस प्रातितथा खीर का ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रती स्वयं
शाख्यसूत्र में शाकटायन का नामोल्लेख एक पूर्वाचार्य के लवण तथा तैल रहित भोजन करे। प्रति मास इसी
रूप में हुआ है। अष्टाध्यायी के सूत्रों में पाणिनि ने प्रकार से व्रत करना चाहिए। एक वर्षपर्यन्त इसका
जिन पूर्व वैयाकरणों के नामोल्लेख किये हैं उनमें शाकआचरण विहित है। व्रत के अन्त में पर्योपयोगी वस्त्र,
टायन भी हैं। किसी नये शाकटायन ने कामधेनु नामक सुवर्ण, एक गौ, एक मकान (यदि सम्भव हो) तथा एक
व्याकरण भी लिखा है । से सहस्र निष्क तक सुवर्ण का दान विहित है। जिम शाकद्वीपीय ब्राह्मण-भारत पर शकों के आक्रमण के पूर्व, समय सूर्य अमृत पान कर रहे थे उस समय उसकी कुछ उनके बसने के कारण वर्तमान बलोचिस्तान का दक्षिणी बूंदें पृथ्वी पर गिर पड़ीं, जिससे चावल, मूंग तथा गन्ना भाग सीस्तान ( शकस्थान ) कहलाता था। उनके भारत उत्पन्न हो गये, अतः ये सूर्य को प्रिय है। इस व्रत के में आने के बाद सिन्ध भी सीस्तान (शकस्थान अथवा आचरण से शोक दूर होता है तथा पुत्र, धन, दीर्घायु एवं शाकद्वीप ) कहलाने लगा। वहाँ से जो ब्राह्मण विशेषकर स्वास्थ्य की उपलब्धि होती है।
उत्तर भारत में फैले वे शाकद्वीपीय कहलाये। इनकी पूर्व शर्व-शिव का एक पर्याय । 'शृ' धातु से व प्रत्यय लगाने उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों में भगों का वर्णन देखना पर यह शब्द बनता है, जिसका अर्थ है संहार करना चाहिए । ऐसा लगता है कि मग ब्राह्मण मूलतः मगध में
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