________________
६२२
शाकपूणि-शाक्तमत
बसते थे, जिसके कारण यह प्रदेश 'मगध' कहलाता था। सन्धियाँ तोडकर पदों को अलग-अलग स्मरण करने की यहाँ से वे पश्चिमी एशिया के देशों में गये और वहाँ से पद्धति चलायो। पदपाठ से शब्दों के मूल की ठीक-ठीक पुनः भारत वापस आये। सूर्यमन्दिरों में पुजारी का कार्य विवेचना की रक्षा हुई। शतपथ ब्राह्मण में शाकल्य का करनेवाले मग ब्राह्मणों का वर्णन पूर्व हो चुका है। इन्हीं दूसरा नाम विदग्ध भी मिलता है। विदेह के राजा जनक मगों को भोजक तथा शाकद्वीपीय ब्राह्मण भी कहते हैं । के ये सभापण्डित और याज्ञवल्क्य के प्रतिद्वन्द्वी थे। ये भविष्यपुराण में शाकद्वीपी मग ब्राह्मणों का शाकद्वीप से । कोसलक-विदेह थे। ऐसा जान पडता है कि ऋग्वेद के पदलाया जाना वणित है। इसमें उनकी चाल, ढाल, प्रथाएँ पाठ का कोसल-विदेह में विकास हुआ। आदि विस्तार से बतायी गयी हैं।
शाकसप्तमी-कार्तिक शुक्ल सप्तमी को इस व्रत का प्रारम्भ इनको भारत में लानेवाले कृष्ण के पुत्र साम्ब थे । वर्णन
होता है। वर्ष के चार-चार महीनों के तीन भाग कर प्रति से जान पड़ता है कि जरथुस्त्र के पूर्व की अथवा उन्हीं की
भाग में एक वर्षपर्यन्त व्रताचरण करना चाहिए । पञ्चमी समकालीन सूर्योपासक आर्य जातियाँ भारतवर्ष में
को एकभक्त, षष्ठी को नक्त तथा सप्तमी को उपवास पश्चिमी देशों से आकर फैली। पारसियों की प्रथाएँ
रखा जाय । इस दिन ब्राह्मणों को अच्छे मसालों से बनी मगों से कुछ मिलती-जुलती हैं । आज भी फारसी साहित्य
वनस्पतियों ( शाकों) से युक्त भोजन कराना विहित है। में मगों के आचार्यों का नाम 'पीरे मुगाँ' सैकड़ों स्थानों में व्रती को स्वयं रात्रि में भोजन करना चाहिए। सूर्य इसके पाया जाता है। ये लोग यज्ञविहित सुरापान करते थे।
देवता हैं । चार-चार महीनों के प्रति भाग में भिन्न प्रकार ज्योतिष और वैद्यक शास्त्र का इनमें विशेष प्रचार था।
के पुष्प ( अगस्ति, सुगन्धित पुष्प, करवीर आदि ), प्रलेप आभिचारिक तथा तान्त्रिक क्रियाओं के भी ये विशेषज्ञ
( केसर, श्वेत चन्दन, लाल चन्दन ), धूप ( अपराजित, होते थे। दे० 'मग ब्राह्मण ।'
अगरु तथा गुग्गुलु ), नैवेद्य ( खीर, गुड़ की चपाती, शाकपूणि-भट्ट भास्कर के कृष्ण यजुर्वेद भाष्य में शाकपूणि उबाले हुए चावल ) का उपयोग करना चाहिए । वर्ष के का नामोल्लेख है । अपने पूर्ववर्ती निरुक्तकारों में शाकपूणि अन्त में ब्राह्मणों को भोजन कराना तथा किसी पुराणपाठक की गणना यास्क ने की है।
से पुराण श्रवण करना चाहिए। शाकम्भरी-दुर्गा का एक नाम । इसका शाब्दिक अर्थ है
ह शाकार्य-कात्यायन के वाजसनेय प्रातिशाख्य में अनेक
- 'शाक से जनता का भरण करने वाली ।' मार्कण्डेय पुराण
आचार्यों के साथ शाकार्य का नामोल्लेख हुआ है । के चण्डीस्तोत्र में यही विचार व्यक्त किया गया है :
शाकिनी-दुर्गा की एक अनुचरी । कात्यायनीकल्प में ततोऽयमखिलं लोकमात्मदेहसमुद्भवः ।
इसका उल्लेख है : भरिष्यामि सुराः शाकैरावृष्टेः प्राणधारकः ॥
डाकिनी योगिनी चैव खेचरी शाकिनी तथा। शाकम्भरीति विख्याति तदा यास्याम्यहं भुवि । वामन पुराण ( अ० ५३ ) में भी शाकम्भरी नाम पड़ने
दिक्षु पूज्या इमा देव्यः सूसिद्धाः फलदायिकाः ।। का यही कारण दिया हुआ है।
शाक्त-शक्ति या दुर्गा के उपासक। जिस सम्प्रदाय की इष्ट
देवता 'शक्ति' है उसको ही शाक्त कहते हैं । शाकम्भरी-राजस्थान का एक प्रसिद्ध देवीतीर्थ । उस
शक्ति से इसका सम्बन्ध है जिससे शाक ( वनस्पति अथवा शाक्तमत-शक्तिपूजक सम्प्रदाय । शक्तिपूजा का स्रोत उद्भिज ) की वृद्धि होती है। नवलगढ़ से २५ मील वेदों में प्राप्त होता है। वाक्, सरस्वती, श्रद्धा आदि के दक्षिण-पश्चिम पर्वतीय प्रदेश में यह स्थान है। ऊपर रूप में स्त्रीशक्ति की कल्पना वेदों में की गयी है। सभी शाकम्भरी देवी का मन्दिर है। यह सिद्ध पीठ कहा देवताओं की देवियों (पत्नियों) की कल्पना भी शक्ति की जाता है।
ही कल्पना है। ऋग्वेद के अष्टम अष्टक के अन्तिम सूक्त शाकल-ऋग्वेद की एक शाखा । शाकल्य वैदिक ऋषि थे। में 'इयं शुष्मेभिः' आदि मन्त्रों से महाशक्ति सरस्वती की उन्होंने ऋग्वेद के पदपाठ का प्रवर्तन किया, वाक्यों की स्तुति की गयी है । सामवेद के वाचंयम सुक्त में 'हवाइ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org