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वेष्णवतोषिणी-वैष्णवमत
यह पद राजा की ओर से धनी वैश्यों को प्रदान किया का साधन है। 'ज्ञानामृतसार' में छः प्रकार की भक्ति कही जाता था । वैश्यों के क्षत्रिय अथवा ब्राह्मण पद प्राप्त करने गयी है-स्मरण, कीर्तन, वन्दन, पादसेवन, अर्चन और का उदाहरण नहीं प्राप्त होता।
आत्मनिवेदन, । भागवतपुराण से (७.५.२३-२४) श्रवण, धर्मसूत्रों और स्मृतियों में वैश्यों के सामान्य और दास्य और सख्य ये तीन प्रकार और मिलाकर नव प्रकार विशेष दो प्रकार के कर्तव्य बतलाये गये हैं । सामान्य की भक्ति मानी जाती है। सम्भवतः भागवतमत की अनेक कर्तव्य है, अध्ययन, यजन और दान । विशेष कर्तव्य है। शाखाओं का अस्तित्व शङ्करस्वामी के समय में भी रहा कृषि, गोरक्षा (गोपालन) और वाणिज्य । वैश्य वर्ण के होगा, किन्तु सबका मूल सिद्धान्त एक ही होने से शङ्करअन्तर्गत अनेक जातियों और उपजातियों का समावेश है। स्वामी ने शाखाओं की चर्चा नहीं की। वैष्णव सम्प्रदायों वैश्यों का शूद्रों के साथ अधिक सम्पर्क बढ़ने और के इतिहास से भी पता चलता है कि उनकी सत्ता का अन्यत्र धार्मिक कठोर आचार (कृच्छ्राचार) बढ़ने के कारण मूल अत्यन्त प्राचीन है, यद्यपि उनके मुख्य प्रचारक वा धीरे-धीरे बहुत-सी कृषि तथा गोपालन करने वाली आचार्य बाद के हैं। शङ्कराचार्य के पश्चात् वैष्णवों के जातियों की गणना शूद्रों में होने लगी और केवल वाणिज्य चार सम्प्रदाय विशेष विकसित दिखलाई पड़ते हैं। श्रीवैष्णव करने वाली जातियाँ ही वैश्य मानी जाने लगी । धर्म- सम्प्रदाय, माध्व सम्प्रदाय, रुद्र सम्प्रदाय और सनकशास्त्रों के अन्तिम चरण में 'कलिवर्य' के अन्तर्गत यह सम्प्रदाय । इन चारों का आधार श्रुति है और दर्शन मत प्रतिपादित हुआ कि कलि में केवल दो वर्ण ब्राह्मण और वेदान्त है । पुराना साहित्य एक ही है, केवल व्याख्या शूद्र है, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण नहीं। ऐसा लगता है और बाह्याचार में परस्पर अन्तर होने से सम्प्रदाय भेद कि बीच में इन वर्गों में आचार के शिथिल हो जाने के उत्पन्न हो गये हैं । महाभारतकाल से लेकर आदि शङ्ककारण यह मान्यता प्रचलित हुई।
राचार्य के समय तक पाञ्चरात्र और भागवत धर्म का रूप वैष्णवतोषिणी-चैतन्यदेव के शिष्य सनातन गोस्वामी समान ही रहा होगा । क्योंकि शङ्कराचार्य ने एक ही नाम द्वारा यह व्याख्या ग्रन्थ भागवत पुराण के दशम स्कन्ध पर से इनकी आलोचना की है। परन्तु इसके पश्चात् सम्भवृन्दावन में रचा गया। वैष्णवतोषिणी का अन्य नाम वतः समय-समय पर आचार्यों के सिद्धान्तों की भिन्न रोति दशमटिप्पणी भी है।
से व्याख्या करने के कारण भागवत और पाञ्चरात्र की वैष्णवदास-चैतन्य सम्प्रदाय के प्रारम्भिक अठारहवीं शती शाखाएँ स्वतन्त्र बन गयीं, जो काल पाकर सम्प्रदायों के के एक वंगदेशीय आचार्य । इन्होंने 'पदकल्पतरु' नामक रूप में प्रकट हुई। ग्रन्थ रचा है।
वैष्णव पुराणों में विष्णुपुराण, ब्रह्मवैवर्तपुराण, हरिवैष्णवपुराण-विष्णु, भागवत, नारदीय, ब्रह्मवैवर्त, पद्म वंश और श्रीमद्भागवत में विष्णु, नारायण, यादव कृष्ण और गरुड वैष्णव पुराण हैं।
और गोपाल कृष्ण के चरितों का कई पहलुओं से वर्णन है । वैष्णवमत-मुख्य रूप से विष्णु की उपासना करने का मार्ग। जैसा नाम से प्रकट है, श्रीमद्भागवत ही सब पुराणों में इसके अन्य नाम भागवतमत तथा पाश्चरात्रमत भी हैं। भागवत सम्प्रदाय का मुख्य ग्रन्थ समझा जाना चाहिए। भागवत सम्प्रदाय महाभारतकाल में भी वर्तमान था। प्राचीन भागवत सम्प्रदाय का अवशेष आज भी दक्षिण कहना चाहिए कि लगभग कृष्णावतार के समय ही पाञ्च- भारत में विद्यमान है। द्रविड, तैलङ्ग, कर्णाटक और महारात्रमत सात्वतों के भागवतमत में परिणत हो गया। राष्ट्र के बहुत से वैष्णव गोपीचन्दन की रेखा वाले ऊर्ध्वपरन्तु बौद्धों के जोर-शोर में प्रायः इस मत का भी ह्रास पुण्ड्र को मस्तक में धारण किये हुए प्रायः मिलते हैं। ये समझा जाना चाहिए । जो कुछ अवशिष्ट था उसका लोग नारदभक्तिसूत्र एवं शाण्डिल्यभक्तिसूत्रों के अनुयायी खण्डन शङ्कर स्वामी ने किया । 'नारदपञ्चरात्र' और हैं। इनकी उपनिषदें वासुदेव एवं गोपीचन्दन है। 'ज्ञानामृतसार' से पता चलता है कि भागवतधर्म की इनका पुराण भागवतपुराण है। महाराष्ट्र देश में इस परम्परा बौद्धधर्म के फैलने पर भी नष्ट नहीं हो पायी। सम्प्रदाय के पूर्वाचार्य ज्ञानेश्वर समझे जाते हैं । जिस तरह इस मत के अनुसार हरिभजन ही परम कर्तव्य और मुक्ति योगमार्ग में ज्ञानेश्वर नाथ सम्प्रदाय के अनुयायी माने
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