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वरुणगृहोत-वर्ण
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कर सकता, अपितु तीनों स्वर्ग तथा तीनों भूलोक उनके भीतर निहित है। वे सबको धारण करने वाले है (ऋ० ८. ४१. ३७)। वे सर्वव्यापी हैं तथा कोई उनसे दूर नहीं भाग सकता । वे विश्व में होने वाली सभी गुप्त से गुप्त बातों को जानते हैं । वे सर्वज्ञ हैं, प्रत्येक आँख की पलक के गिरने का उन्हें ज्ञान है।' वरुण को प्रसन्न करने के लिए ऐसी ही अनेक स्तुतियाँ वेदों में कही गयी हैं । वे अपने भक्तों को प्रसन्नता व रक्षा का वर देते हैं। वरुणगृहीत-वरुणगृहीत (वरुण से ग्रहण किया हुआ) का उल्लेख वैदिक ग्रन्थों में बहुशः हुआ है । वरुण से गृहीत होने पर मनुष्य को जलोदर का रोग होता है। पापों के फलभोग के लिए वरुण द्वारा दिया गया यह दण्ड है। वरुणवत-(१) यदि कोई व्यक्ति रात्रि भर जल में खड़ा रहे तथा दूसरे दिन प्रातः एक गौ का दान करे तो वह वरुणलोक प्राप्त कर लेता है।
(२) विष्णुधर्म० ( ३.१९५.१-३ ) के अनुसार भाद्र- पद मास के प्रारम्भ से पूर्णिमा तक वरुण का पूजन करना चाहिए। व्रत के अन्त में एक जलधेनु, एक छाता, दो वस्त्र तथा एक जोड़ी खड़ाऊँ का दान किया जाय । 'जलधेनु' शब्द अनुशासनपर्व ( ७१.४१ ) तथा मत्स्य पुराण ( ५३.१३ ) में आता है। वर्ची-ऋग्वेद में यह इन्द्र के एक शत्रु का नाम है। उसे दास तथा शम्बर का साथी भी (४.३०.१५) कहा गया । है। वह पार्थिव शत्रु एवं असुर है। सम्भवतः उसका सम्बन्ध वृचीवन्त से है। वर्ण-चार श्रेणियों में विभक्त भारत का मानववर्ग । यह सामाजिक संस्था है। इसका अर्थ है प्रकृति के आधार पर गुण, कर्म और स्वभाव के अनुसार समाज में अपनी वृत्ति ( व्यवसाय ) का चुनाव करना । इस सिद्धान्त के अनुसार समाज में चार ही मूल वर्ग अथवा वर्ण हो सकते हैं । वे है (१) ब्राह्मण (बौद्धिक कार्य करने वाला) (२) क्षत्रिय ( सैनिक तथा प्रशासकीय कार्य करने वाला (३) वैश्य ( उत्पादक सामान्य प्रजा वर्ग ) और (४) शूद्र ( श्रमिक वर्ग) । वर्ण की उत्पत्ति के सम्बन्ध में कई सिद्धान्त हैं। एक मत के अनुसार इसकी उत्पत्ति प्राकृतिक श्रमविभाजन के आधार पर हुई । श्रमविभाजन पहले व्यक्तिगत था जो पोछे पैतक हो गया। दूसरे मत के अनुसार वर्ण दैवी व्यवस्था है । विराट् पुरुष ( विश्वपुरुष ) के शरीर के
चार अङ्गों से चार वर्ण उत्पन्न हुए : मुख से ब्राह्मण, बाहुओं से राजन्य (क्षत्रिय ), जंघाओं से वैश्य और चरणों से शूद्र उत्पन्न हुआ । वास्तव में यह सामाजिक श्रम अथवा कार्य विभाजन का रूपकात्मक वर्णन है। तीसरे मत के अनुसार वर्ण का आधार प्रजाति है और वर्ण का अर्थ रंग है। आर्य श्वेत और आर्येतर कृष्ण वर्ण के थे। इस रंगीन अन्तर के कारण पहले आर्य और अनार्य अथवा शूद्र दो वर्ण बने । फिर आर्यों में ही तीन वर्ण हो गये-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । परन्तु आर्यों के भीतर हो तीन वर्ण अथवा रंग कैसे हुए, इसकी व्याख्या इस मत से नहीं होती। वर्ण की उत्पत्ति का चौथा मत दार्शनिक है। संसार में जितते भी भेद हैं वे सांख्यदर्शन के अनुसार तीनों गुणों-सत्त्व, रज तथा तम-के न्यूनाधिक्य के कारण बने हैं। सामाजिक विभाजन भी इसी के ऊपर आधारित है। जिसमें सत्त्वगुण (ज्ञान अथवा प्रकाश) की प्रधानता है वह ब्राह्मण वर्ण है। जिसमें रजोगुण (क्रिया अथवा शक्ति) की प्रधानता है वह क्षत्रिय वर्ण है। जिसमें रजस्तमः (अन्धकार-लोभ-मोह) के मिश्रण की प्रधानता है वह वैश्य वर्ण है और जिसमें तमः (अन्धकार, जड़ता) की प्रधानता है वह शूद्र वर्ण है ।
वास्तव में दार्शनिक सिद्धान्त ही मौलिक सिद्धान्त है । परन्तु वर्ण के ऐतिहासिक विकास में उपर्युक्त सभी तत्त्वों का हाथ रहा। पहले आर्यों में ही वर्ण विभाजन था किन्तु वह व्यक्तिगत और मुक्त था; वर्ण परिवर्तन संभव और सरल था। ज्यों ज्यों आर्येतर तत्त्व समाज में बढ़ता गया त्यों त्यों शूद्रों की संख्या तो बढ़ती गयी किन्तु उनका सामाजिक स्तर गिरता गया। साथ ही जो वर्ण शूद्र के जितना ही निकट और उससे सम्पृक्त था वह उतना ही सामाजिक मूल्यांकन में नीचे खिसकता गया । वर्णों के पैतृक होने का एक कारण तो पैतृक व्यवसाय का स्थायित्व था, परन्तु दूसरा कारण प्रजातीय भेद भी हो सकता है। फिर भी वर्ण का एक वैशिष्ट्य था। इसमें सहस्रों जातियों और उपजातियों को चार पूरक
और परस्पर सहकारी वर्गों में बाँटने का प्रयास किया गया है। यह जातिप्रथा से भिन्न संस्था है। वर्ण सैद्धान्तिक अथवा वैचारिक संस्था है, जबकि जाति का आधार जन्म अथवा प्रजाति है । वर्ण संयोजक है, जाति विभाजक है। वर्गों के कर्तव्य अथवा कार्य का विभाजन सैद्धान्तिक
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