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वृन्ताकत्यागविधि-वृन्दावनद्वादशी
५९५ जिनमें सुवर्णखण्ड पड़े हों। इन्द्र तथा लोकपालों के पर ब्राह्मण का कर्तव्य स्वस्तिवाचन करना है। जो लिए वनस्पतियों के निमित्त हवन करना चाहिए। व्यक्ति जीवनपर्यन्त बैंगन नहीं खाता वह सीधा विष्णु
अतिथि, ब्राह्मणों को दूध से परिपूर्ण भोजन कराया लोक जाता है। जो व्यक्ति एक वर्ष या एक मास के जाय। इस अवसर पर जौ, काले तिल तथा सरसों से लिए इसका त्याग करता है उसे यम की राजधानी में हवन करना चाहिए। हवन में पलाश की समिधाएँ उपस्थित नहीं होना पड़ता। यह प्रकीर्णक व्रत है । प्रयुक्त की जायें। चौथे दिन व्रतोत्सव आयोजित हो।
वृन्दावन-मथुरा से सात मील उत्तर यमुनातट पर वृक्षइससे व्रती अपनी समस्त मनःकामनाओं की पूर्ति होते ।
लता-कुञ्ज-कुटीरों से शोभायमान विख्यात वैष्णव तीर्थ । हुए देखता है ।
वृन्दावन का महत्त्व इसलिए है कि भगवान् कृष्ण ने यहीं मत्स्यपुराण (१५४.५१२) के अनुसार एक पुत्र दस पर गोचारण की अनेकों बाललीलाएँ तथा गोपियों के गहरे जलाशयों के समान है तथा एक वृक्ष का आरोपण
साथ महारास की लीला की थी। पूर्व जन्म में जालदस पुत्रों के बराबर है। वराहपुराण (१७२.३६-३७) में
न्धर की पत्नी वृन्दा थी। भगवत्कृपा से वह विष्णुकहा गया है कि जैसे एक अच्छा पुत्र परिवार की रक्षा
प्रिया बन गयी। उसको विष्णु का वरदान मिला। करता है, उसी प्रकार एक वृक्ष', जिस पर फल-फूल लदे असंख्य गोपियों के रूप में वह व्रज में अवतरित हुई। हों, अपने स्वामी को नरक में गिरने से बचाता है। पाँच उसके नाम से ही विहारस्थल का नाम वृन्दावन पड़ा। आम के पौधे लगाने वाला कभी नरक जाता ही नहीं : यह संतों और भक्तों की सिद्ध भजनस्थली भी रही है। 'पञ्चानवापी नरकं न याति ।' विष्णुधर्म० (३.२९७- एक से एक बढ़कर गोपाल कृष्ण के हजारों मन्दिर यहाँ १३) के अनुसार 'एक व्यक्ति द्वारा पालित पोषित वृक्ष एक भक्तों की भावना के स्मारक बने हुए हैं । साधुओं के अखाड़े, पुत्र के समान या उससे भी कहीं अधिक महत्त्व रखता आश्रम, कुटी, कुंज, भजनाश्रम, रासमण्डल, ब्रजरज और है । देवगण इसके पुष्पों से, यात्री इसकी छाया में बैठकर, घाटों से इस स्थान की शोभा निराली हो गयी है। मनुष्य इसके फल-फूल खाकर इसके प्रति कृतज्ञता प्रकट
आध्यात्मिक अर्थ में ब्रह्म और जीव के तादात्म्य की करते हैं । अतः वृक्षारोपण करने वाले व्यक्ति को कभी
यह रासस्थली (अनुभवभूमि) है। बालकृष्ण की लीलानरक में जाने की आवश्यकता नहीं पड़ती।
भूमि वृन्दावन कृष्णभक्तों तथा सभी वैष्णवों के लिए वृन्ताकत्यागविधि-वृन्ताक (बैगन या भंटा ) फल के अति आकर्षणपूर्ण पुण्य स्थल है। मुसलमानी आक्रमणभक्षण का पूरे जीवन के लिए अथवा एक वर्ष या छः मास कारियों ने इसके पूर्व गौरवशाली रूप को विकृत कर या तीन मास के लिए त्याग करना इस व्रत में विहित दिया था। किन्तु फिर अनेक सम्प्रदायों तथा उनके संरहै। इसमें एक रात्रि को भरणी अथवा मघा नक्षत्र के क्षकों के द्वारा इसके पुण्यस्थलों का उद्धार हुआ है। समय उपवास करना चाहिए । यमराज, काल, चित्रगुप्त, प्रसिद्ध चैतन्यानुयायी रूप तथा सनातन गोस्वामी आदि मृत्यु एवं प्रजापति को एक वेदी पर स्थापित कर उनकी वैष्णवों ने तो वृन्दावन को ही अपना कार्यस्थल बनाया । प्रार्थना करते हुए गन्ध, अक्षतादि से पूजन करना इन लोगों ने इसके माहात्म्य को और भी बढ़ाया। अनेकों चाहिए । तिल तथा घी से 'नीलाय स्वाहा, यमाय स्वाहा' कृष्णभक्त कवि, गायक, सन्त आदि के नामों से यह कहकर होम करना चाहिए और इसी प्रकार स्वाहा शब्द स्थान संबंधित है । अकबर के शासन काल में अनेक राजनीलकण्ठ, यमराज, चित्रगुप्त , वैवस्वत के साथ जोड़कर पूत राजाओं तथा अन्य भक्तों के दान से यहाँ अनेकों भव्य हवन करना चाहिए। इस तरह १०८ आहुतियाँ दी मन्दिर बने । इस निर्माण में उपर्युक्त चैतन्य सम्प्रदाय के जाँय । तदनन्तर सोने के बने हुए वृन्ताक, श्यामा गौ, गोस्वामी लोगों का बड़ा हाथ था। साँड, अंगूठियाँ, कान के आभूषण, छाता, पादुका, एक वृन्दावनद्वादशी-कार्तिक शुक्ल द्वादशी को वृन्दावनद्वादशी जोड़ी कपड़े तथा एक काले कम्बल का दान करना कहते हैं। इस व्रत के अनुष्ठान का प्रचार केवल चाहिए । ब्राह्मणों को भोजन देना चाहिए । इस अवसर तमिलनाडु में है।
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