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बंदाज वेदान्तकौस्तुभ
शैवाचार से दक्षिणाचार महान् है, दक्षिणाचार से वामाचार श्रेष्ठ है, वामाचार से सिद्धान्ताचार उत्तम है तथा सिद्धान्ताचार की अपेक्षा कौलाचार परम उत्तम है ।
प्राणतोषिणीधृत नित्यानन्दतन्त्र में लिखा है कि शिव पार्वती से कह रहे हैं : " हे सुन्दरि ! वेदाचार का वर्णन करता हूँ, तुम सुनो। साधक ब्राह्म मुहूर्त में उठे और गुरु के नाम के अन्त में आनन्दनाथ बोलकर उनको प्रणाम करे | फिर सहस्रदल पद्म में उनका ध्यान करके पञ्च उपचारों से पूजा करें और वाग्भव बीज का जप करके परम कलाशक्ति का ध्यान करे ।" महाराष्ट्र के वैदिकों में वेदाचार का प्रचार है ।
वेदाङ्ग – वेदों के सहायक शास्त्र, जिनकी संख्या छः है । वेदों के पाठ अर्थज्ञान, यज्ञों में उनकी उपयोगिता आदि जानने के लिए इन छः शास्त्रों की आवश्यकता होती है : ( १ ) शिक्षा ( २ ) कल्प ( ३ ) व्याकरण (४) निरुक्त (५) छन्द और (६) ज्योतिष जैसे मनुष्य के आंख, कान, नाक, मुख, हाथ और पाँव होते हैं वैसे ही वेदों के लिए आँख ज्योतिष है, कान निरुक्त है, नाक शिक्षा है, मुख व्याकरण है, हाथ कल्प हैं और पाँव छन्द हैं (पाणिनीय शिक्षा ४१-४२) । उच्चारण के सम्बन्ध में उपदेश शिक्षा है। यज्ञ यागादि कर्म सम्बन्धी विधि कल्प है । शब्दों के सम्बन्ध में विचार व्याकरण है और उनकी व्युत्पत्ति और अर्थ के सम्बन्ध में विचार निरुक्त है । वैदिक छन्दों के सम्बन्ध का ज्ञान छन्द अथवा पिङ्गल है । यज्ञ-यागादि करने के योग्य अयन ऋतु, संवत्सर, मुहूर्त का विचार और तत्सम्बन्धी ज्ञान ज्योतिष है । वेद के ज्ञान की पूर्ति इन विषयों का अलग अलग अध्ययन किये बिना नहीं हो सकती । (वेदाङ्गों का विस्तृत परिचय उनके नामगत परिचय में देखिए 1)
वेदान्त यह शब्द 'वेद' और 'अन्त' इन दो शब्दों के मेल से बना है, अतः इसका वाक्यार्थ वेद अथवा वेदों IT अन्तिम भाग है । वैदिक साहित्य मुख्यतः तीन भागों में विभक्त है, पहले का नाम है 'कर्मकाण्ड', दूसरे का नाम है 'ज्ञानकाण्ड', तीसरे का नाम है 'उपासनाकाण्ट' । साधारणतः वैदिक साहित्य के ब्राह्मण भाग को, जिसका सम्बन्ध यज्ञों से है, कर्मकाण्ड कहते हैं और उपनिषदें ज्ञानकाण्ड कहलाती हैं, जिसमें उपासना भी सम्मिलित है । अन्त शब्द का अर्थ क्रमशः 'तात्पर्य', 'सिद्धान्त' तथा
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'आन्तरिक अभिप्राय' अथवा मन्तब्य भी किया गया है। उपनिषदों के मार्मिक अध्ययन से पता चलता है कि उन ऋषियों ने, जिनके नाम तथा जिनका मत इनमें पाया जाता है, अन्त शब्द का अर्थ इसी रूप में किया है । उनके मत के अनुसार वेद वा ज्ञान का अन्त अर्थात् पर्यवसान ब्रह्मज्ञान में है । देवी-देव, मनुष्य, पशु-पक्षी, स्थावरजङ्गमात्मक सारा विश्वप्रपञ्च नाम रूपात्मक जगत् ब्रह्म से भिन्न नहीं; यही वेदान्त अर्थात् वेदसिद्धान्त है जो कुछ दृष्टिगोचर होता है, जो कुछ नाम रूप से सम्बोधित होता है, उसकी सत्ता ब्रह्म की सत्ता से भिन्न नहीं। मनुष्य का एक मात्र कर्तव्य ब्रह्मज्ञान प्राप्ति, ब्रह्ममयता, ब्रह्मस्वरूप की प्राप्ति है। यही एक बात वेदों का मौलिक सिद्धान्त, अन्तिम तात्पर्य तथा सर्वोच्च सर्वमान्य अभिप्राय है। यही वेदान्त शब्द का मूलार्थ है । इस अर्थ में वेदान्त शब्द से उपनिषद् ग्रन्थों का साक्षात् बोध होता है । परवर्ती काल में वेदान्त का तात्पर्य वह दार्शनिक सम्प्रदाय भी हो गया जो उपनिषदों के आधार पर केवल ब्रह्म की ही एक मात्र सत्ता मानता है । कई सूक्ष्म भेदों के आधार पर इसके कई उपसम्प्रदाय भी है, जैसे अ वाद, विशिष्टाद्वैत, शुद्धाद्वैतवाद आदि । वेदान्तकल्पतरु - अद्वैत वेदान्त का एक ग्रन्थ, जिसकी रचना १२६० ई० के कुछ पूर्व अमलानन्द द्वारा हुई। ब्रह्मसूत्रभाष्य के ऊपर यह वाचस्पति मिश्र की 'भामती' टीका की व्याख्या है वेदान्तकल्पतरुपरिमल - ' भामती' - व्याख्या 'वेदान्तकल्पतरु' की यह अप्पयदीक्षित कृत टीका है। वेदान्तकल्पलतिका - स्वामी मधुसूदन सरस्वतीकृत वेदान्तविषयक एक ग्रन्थ । इसका रचनाकाल १५५० ई० के आसपास है । वेदान्तकारिकावली -- विशिष्टाद्वैत वेदान्ती बुच्चि वेङ्कटाचार्य ने वेदान्तकारिकावली ग्रन्थ की रचना की। इसमें रामानुजाचार्यसम्मत पदार्थों और सिद्धान्तों का सारांश लिखा गया है । यह ग्रन्थ पद्य में है । बुच्चि वेदाचार्य रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी थे । वेदान्तकौस्तुभ - निम्बार्क सम्प्रदाय के द्वितीय आचार्य श्रीनिवास विरचित वेदान्तसूत्र का तार्किक भाष्य । यह द्वैता - द्वैत सिद्धान्त का अधिकारी ग्रन्थ है रचना सुदीर्घ, गम्भीर तथा दार्शनिकों में बहु आदूत है । रचनाकाल लगभग १२वीं शताब्दी था ।
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