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वेदान्तसूत्र-वेदि(वेदिका)
पाण्डित्यपूर्ण और प्राञ्जल है । इसमें गद्य में विवेचना कृत वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम 'वेदान्तस्यमन्तक' है । यह करके पद्य में सिद्धान्त निरूपण किया गया है । इसके ऊपर गौडीय चैतन्य मतानुसार लिखा गया है। अप्पयदीक्षित की सिद्धान्तदीपिका नाम की वृत्ति है। वेदान्ताचार्य-वेदान्ताचार्यों की परम्परा का प्रारम्भ इसका अंग्रेजी अनुवाद भी हो चुका है।
बादरायण के ब्रह्मसूत्र रचनाकाल के बहुत पहले हो चुका वेदान्तसूत्र-वेदान्तसूत्र को ब्रह्मसूत्र भी कहते हैं। इसके
था। कहा जा चुका है कि बादरायण के पूर्व अनेक आचार्य रचयिता बादरायण व्यास हैं । इन्होंने उपनिषदों को समग्र
वेदान्त के सम्बन्ध में विभिन्न मतों के मानने वाले हो दार्शनिक सामग्री का आलोचन कर इसकी रचना की, जो
चुके थे। बादरायण ने केवल उन सबके मतों का अपने सूत्रों वेदान्त की प्रस्थानत्रयी' का दूसरा प्रस्थान है। यह
में संकलन और समन्वय किया है। इन आचार्यों के नाम - चार अध्यायों में विभक्त है और प्रत्येक अध्याय में चार
स्थान-स्थान पर सूत्रों में आ गये हैं। इस परम्परा का पाद हैं । शङ्कराचार्य के अनुसार ब्रह्मसूत्रों की अधिकरण
क्रम आज तक चला आ रहा है। इस लम्बी परम्परा को संख्या १९१, बलदेवभाष्य के अनुसार १९.., श्रीकण्ठ के
कालक्रम से तीन श्रेणियों में बाँट सकते हैं : अनुसार १८२, रामानुज के अनुसार १५६, निम्बार्क के
(१) बादरायण के पूर्व के वेदान्ताचार्य-जिनमें बादरि, अनुसार १५१, वल्लभाचार्य के अणुभाष्य के अनुसार १६२
कार्णाजिनि, आत्रय, औडुलोमि, आश्मरथ्य, काशकृत्स्न,
जैमिनि, काश्यप एवं बादरायणि के नाम हैं । और मध्व के अनुसार २२३ है । प्रचलित पाठ के अनुसार
(२) बादरायण के पश्चात् एवं शङ्कर के पूर्व के ब्रह्मसूत्रों की सूत्रसंख्या ५५६ होनी चाहिए ।
वेदान्ताचार्य-शङ्कर ने अपने भाष्य में इनकी चर्चा की इसके प्रथम अध्याय का नाम 'समन्वय' है । इसमें है तथा दार्शनिक साहित्य में भी इनका जहाँ तहाँ उल्लेख ब्रह्म के सम्बन्ध में विभिन्न श्रुतियों का समन्वय किया
मिलता है । ये हैं भर्तृप्रपंच, ब्रह्मनन्दी, टङ्क, गुहदेव, गया है। दूसरा अध्याय 'अविरोध' है, जिसमें अन्य दर्शनों भारुचि, कपर्दी, उपवर्ष, बोधायन, भर्तृहरि, सुन्दर पाण्ड्य, का खण्डन कर युक्ति और प्रमाणों से वेदान्तमत की स्था- द्रमिडाचार्य, ब्रह्मदत्त आदि । पना की गयी है। तीसरे अध्याय का नाम 'साधन' है । (३) शङ्कर के पश्चादवर्ती वेदान्ताचार्य-ये दो विभागों इसमें जीव और ब्रह्म के लक्षणों का प्रतिपादन है तथा मुक्ति
में विभाजित हैं; शङ्करमतानुयायी तथा रामानुजमतानुके बहिरंग एवं अन्तरंग साधनों का विवेचन है । ब्रह्मसूत्र
यायी । इन सभी आचार्यों का यहाँ वर्णन उपस्थित करना के चौथे अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति,
पुनरावृत्ति होगी। इनका परिचय यथास्थान देखिए । निर्गुणसगुण उपासना तथा मुक्त पुरुष का वर्णन है।
वेदार्थसंग्रह-आचार्य रामानुज द्वारा रचित दार्शनिक वेदान्तसूत्रभाष्य-(१) ( अन्य नाम शारीरक भाष्य ) के ग्रन्थों में तीन अति महत्त्वपूर्ण है-(१) वेदार्थसंग्रह (२) रचयिता शङ्कराचार्य है। यह अद्वैत वेदान्त मत की श्रीभाष्य (वेदान्तसूत्र का भाष्य) और (३) गीताभाष्य । स्थापना करता है।
वेदार्थसंग्रह में आचार्य ने यह दिखाने की चेष्टा की है कि (२) आचार्य मध्वरचित वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम
उपनिषदें शुष्क अद्वैत मत का प्रतिपादन नहीं करतीं । 'पूर्णप्रज्ञ भाष्य' है । यह द्वैतवाद का प्रतिपादक है।
सुदर्शन व्यास भट्टाचार्य ने वेदार्थसंग्रह की तात्पर्यदी(३) आचार्य रामानुज के वेदान्तसूत्रभाष्य का नाम । पिका नामक टीका लिखी है। 'श्रीभाष्य है।
वेदि (वेदिका)-यज्ञाग्नि या कलश आदि स्थापित करने का (४) निम्बार्काचार्य के संक्षिप्त वेदान्तसूत्र भाष्य या छोटा चबूतरा । वैदिक काल में यज्ञ खुले मैदान में यज्ञकर्ता विवृति का नाम 'वेदान्तपारिजात सौरभ' है।
के घर के समीप आच्छादित मण्डप के नीचे होता था। (५) वल्लभाचार्यरचित वेदान्तसूत्रभाष्य को 'अणु- 'वेदि' शब्द उस क्षेत्र का बोधक है जिसके ऊपर यज्ञ क्रिया भाष्य' कहते हैं। इसका रचनाकाल पन्द्रहवीं शताब्दी का सम्पन्न होती थी। इसके ऊपर ( वेदि पर ) कुश बिछाये अन्त या १६वीं का प्रारम्भ है ।
जाते थे जिससे देवता आकर उस पर बैठे; फिर उस पर (६) आचार्य बलदेव विद्याभूषण (अठारहवीं शती) यज्ञसामाग्री-दुग्ध, घृत, अन्न, पिण्डादि रखे जाते थे।
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