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वेदेश-वैदिकशाक्तमत
वेदि पर ही यज्ञाग्नि प्रज्वलित कर यज्ञसामग्रियों का हवन मरण नामक स्थान पर मारा गया था। तैत्तिरीय आ० अध्वर्यु द्वारा होता था। इसकी निर्माणविधि शुल्बसूत्रों (१.२३.३) में भी इसकी चर्चा है। इनमें से एक व्यक्ति से निर्धारित होती है।
वैखानसपुरुहन्ता कहा जाता था। वेदेश-आचार्य वेदेशतीर्थ मध्वमतावलम्बी हरिभक्त थे। वैखानसगृह्यसूत्र-यह कृष्ण यजुर्वेद का एक गृह्यसूत्र है । इन्होंने पदार्थकौमुदी, तत्त्वोद्योतटीका की वृत्ति, कठोपनिषद् वैखानसधर्मसूत्र-पाँच प्रारम्भिक धर्मसूत्रों में से एक । यह वृत्ति, केनोपनिषद् वृत्ति तथा छान्दोग्योपनिषद् आदि की वृत्ति सभी शाखाओं के लिए उपयोगी है । द्वितीय श्रेणी के विरचित की है। इनका समय प्रायः अठारहवीं शती था। धर्मसूत्रों में भी यह मुख्य समझा जाता है। वेश्यावत–वेश्याओं को अपने उद्धार के लिए गौओं, खेतों, वैखानससंहिता-आगमसंहिताएँ दो प्रकार की है, पाञ्चदेवोद्यान तथा सुवर्णादि का दान करना चाहिए तथा जिस रात्र और वैखानस । किसी वैष्णव मन्दिर में पाञ्चरात्र रविवार को हस्त, पुष्य या पुनर्वसु नक्षत्र हो उस दिन वे तथा किसी में वैखानससंहिताएँ प्रमाण मानी जाती हैं। सौषधि युक्त जल से स्नान करें। स्नानोपरान्त कामदेव वैखानससंहिताएँ और उनमें भी विशेषतः भागवतका आपाद-मस्तक पूजन करें तथा कामदेव को विष्णु भग- संहिता नाम की एक विशेष संहिता हरि-हर की एकता वान् ही मानें । एक वर्ष के लिए विष्णुपूजा का नियम सम्पादन करने के लिए लिखी गयी जान पड़ती है। पालें, तेरहवें मास पर्यङ्कोपयोगी वस्त्र, सुवर्णशृखला तथा वैतरणीव्रत-मार्गशीर्ष कृष्ण एकादशी को वैतरणी तिथि कामदेव की प्रतिमा का दान करें। यह व्रत समस्त वेश्याओं कहा गया है । उस दिन व्रतकर्ता नियमों का पालन (कुछ के लिए उपयोगी है। अनङ्ग (प्रेम का देवता) ही इसका प्रतिषिद्ध आचरणों का त्याग) करे। रात्रि के समय एक देवता है । कृत्यकल्पतरु (व्रतकाण्ड, २७-३१) में इस व्रत का
श्यामा गौ की मुख की ओर से प्रारम्भ कर पूँछ तक के उल्लेख मिलता है।
भाग की पूजा करनी चाहिए। उसके चरणों तथा सींगों वैकुण्ठ-आगमसंहिताओं के सिद्धान्तानुसार वैकुण्ठ सबसे को चन्दन से सुवासित जल से धोना तथा पौराणिक मन्त्रों ऊँचे स्वर्ग को कहते हैं। कोई जीवात्मा ज्ञानलाभ तथा से उसके शरीरावयवों की आराधना करनी चाहिए । चूंकि मोक्ष प्राप्ति ईश्वरकृपा के बिना नहीं कर सकता। ईश्वर- नरक लोक में मनुष्य गौ की सहायता से ही वैतरणी नदी कृपा और भक्ति से वह ईश्वर में विलीन नहीं होता, अपितु को पार करता है, अतएव यह एकादशी, जिसको गौ की वैकुण्ठ में ईश्वर का सायुज्य प्राप्त करता है।
पूजा होती है, वैतरणी एकादशी कहलाती है। इस व्रत वैकुण्ठचतुर्वशी-(१) कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी । इस दिन
का आयोजन वर्ष के चार-चार मासों के तीन भागों में भगवान् विष्णु की पूजा रात्रि में की जानी चाहिए। दे०
करना चाहिए । मार्गशीर्ष मास के प्रथम भाग में उबाला निर्णयसिन्धु, २०६।
हुआ चावल, द्वितीय में पकाया हुआ जौ तथा तृतीय भाग (२) कार्तिक शुक्ल चतुर्दशी को हेमलम्ब संवत्सर के में खीर अपित करनी चाहिए । कूल नैवेद्य का सवाया भाग समय भगवान् विश्वेश्वर ने ब्राह्म मुहूर्त में काशी के मणि- गौ को, सवाया भाग पुरोहित को तथा शेष भाग स्वयं कणिका तीर्थ में स्नान किया था। उन्होंने पाशुपत व्रत व्रती को ग्रहण करना चाहिए। वर्ष के अन्त में पर्यङ्कोपभी किया था तथा उमा के साथ विश्वेश्वर की पूजा तथा योगी वस्त्र, सोने की गौ तथा एक द्रोण लोहा पुरोहित स्थापना भी की थी।
को दान करना चाहिए । वैखानस-(१) वानप्रस्थ (तृतीय आश्रमी) के लिए प्रारंभ वैतानश्रौतसूत्र-अथर्ववेद का एक मात्र श्रौतसूत्र यही उपमें वैखानस शब्द का प्रयोग होता था। वैखानस 'विख- लब्ध है। नस्' से बना है, जिसका अर्थ नियमों का परम्परागत वैदिकशाक्तमत-निगमानुमोदित तान्त्रिक विधान ही वैदिक रचयिता है। गौतमधर्मसूत्र (३.२६) में उपर्युक्त अर्थ शाक्त मत, दक्षिण मार्ग अथवा दक्षिणाचार कहा जाता है। में यह शब्द व्यवहृत हुआ है।
ऋग्वेद के आठवें अष्टक के अन्तिम सूक्त में "इयं शुष्मेभिः" (२) पौराणिक ऋषियों का समूह, जो पञ्चविंश ब्राह्मण प्रभृति मन्त्रों से पहले नदी का स्तवन है, फिर देवता रूप (१४.४.७) के अनुसार 'रहस्य देवमलिम्लुच' द्वारा मुनि- में महाशक्ति एवं सरस्वती का स्तवन है। सामवेद वाचं
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