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वृषोत्सर्ग - 'वृष अथवा साँड़ का उत्सर्ग (त्याग) दान' । चैत्र या कार्तिक पूर्णिमा को अथवा रेवती नक्षत्र में साँड़ को छोड़ना वृषोत्सर्गव्रत कहलाता है। तीन वर्ष में एक चार ऐसा करना चाहिए। साँड़ भी तीन वर्ष की अवस्था का होना चाहिए। तीन वर्ष की अवस्था वाली चार या आठ गौएँ साँड़ के साथ छोड़ दी जानी चाहिए | सामान्य रूप से किसी पुरुष की मृत्यु के ग्यारहवें दिन साँड़ छोड़ने का प्रचलन है ।
गिरि - सुदूर दक्षिण के आन्ध्र देश का एक तीर्थस्थल । वह कालहस्ती से १५ मील दूर स्थित है। यहाँ काशीपेठ में काशीविश्वेश्वर शिव का मन्दिर है। यह मूर्ति काशी से लाकर स्थापित की गयी है। अन्नपूर्णा, कालभैरव, सिद्धविनायक आदि की मूर्तियाँ भी यहाँ दर्शनीय हैं । वेङ्कटेश्वर (तिरुपति) - आन्ध्र देशस्थ वेङ्कटाद्रि पर विराजमान भगवान् वेङ्कटेश्वर के मन्दिर में शिव और विष्णु की एकता आज भी प्रत्यक्ष है । यह मन्दिर तिरुपति पहाड़ी पर स्थित है। यह दक्षिण भारत का सर्वाधिक लोकपूजित और वैभवशाली तीर्थ है । पहले इसमें वैखानससंहिता के आधार पर पूजा होती थी, जबकि तमिल देश के अधिकांश मन्दिरों में पाञ्चरात्र संहिताओं के आधार पर पूजा होती थी। काञ्जीवरम् श्रीपेरुम्बुर के मन्दिरों में भी बैंकटेश्वर मन्दिर के समान वैखानससंहिता का अनुसरण होता था । बाद में रामानुज स्वामी ने वेंकटेश्वर में प्रच लित वैखानस विधि को हटाकर पाश्चरात्र विधि प्रचलित करायी थी।
वेद तैत्तिरीय संहिता, आपस्तम्ब धर्मसूत्र, मनुस्मृति नाट्यशास्त्र, अमरकोश आदि में 'वेद' शब्द की व्युत्पत्ति बतलायी गयी है । यह शब्द चार धातुओं से व्युत्पन्न होता है(१) विद् (ज्ञाने) (२) विद् (सत्तायाम् ) (३) विद् (लाभ) और (४) विद् (विचारणे) । 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' में स्वामी दयानन्द सरस्वती ने 'वेद' शब्द का निर्वचन निम्नांकित प्रकार से किया है
"विदन्ति जानन्ति, विद्यन्ते भवन्ति, विन्दन्ते लभन्ते, विन्दन्ति विचारयन्ति सर्वे मनुष्याः सत्यविद्याम् यैर्वेषु वा तथा विद्वांसश्च भवन्ति, ते वेदाः ।"
[ जिनसे सभी मनुष्य सत्य विद्या को जानते हैं, अथवा प्राप्त करते हैं, अथवा विचारते हैं, अथवा विद्वान् होते हैं अथवा सत्य विद्या की प्राप्ति के लिए जिनमें प्रवृत्त होते
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वृषोत्सर्ग-बंद
हैं, उनको वेद कहते हैं । ] परन्तु यहाँ पर जिस ज्ञान का संकेत किया गया है वह सामान्य ज्ञान नहीं है, यद्यपि वैदिक साहित्य में सामान्य ज्ञान का अभाव नहीं। यहाँ ज्ञान का अभिप्राय मुख्यतः ईश्वरीय ज्ञान है, जिसका साक्षात्कार मानवजीवन के प्रारम्भ में ऋषियों को हुआ था। मनु (१.७) ने तो वेदों को सर्वज्ञानमय ही कहा है ।
'वेद' शब्द का प्रयोग पूर्व काल में सम्पूर्ण वैदिक बाइ मय के अर्थ में होता था, जिसमें संहिता, ब्राह्मण, आरयक और उपनिषद् सभी सम्मिलित थे। कथित है - "मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम्”, अर्थात् मन्त्र और ब्राह्मणों का नाम वेद है | यहाँ ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद् का भी समावेश है । किन्तु आगे चलकर 'वेद' शब्द केवल चार वेदसंहिताओं; ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद का ही द्योतक रह गया । ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् वैदिक वाङ्मय के अज होते हुए भी मूल वेदों से पृथक् मान लिये गये । सायणाचार्य ने तैत्तिरीय संहिता की भूमिका में इस तथ्य का स्पष्टीकरण किया है : " यद्यपि मन्त्रब्राह्मणात्मको वेदः तथापि ब्राह्मणस्य मन्त्रव्याख्यानस्वरूपत्वाद् मन्त्रा एवादी समाम्नाताः ।" अर्थात् यद्यपि मन्त्र और ब्राह्मण दोनों का नाम वेद है, किन्तु ब्राह्मण ग्रन्थों के मन्त्र के व्याख्यान रूप होने के कारण ( उनका स्थान वेदों के पश्चात् आता है और ) आदि वेदमन्त्र ही हैं। इस वैदिक ज्ञान का साक्षात्कार, जैसा कि पहले कहा गया है, ऋषियों को हुआ था। जिन व्यक्तियों ने अपने योग और तपोबल से इस ज्ञान को प्राप्त किया वे ऋषि कहलाये, इनमें पुरुष स्त्रियाँ दोनों थे। वैदिक ज्ञान जिन ऋचाओं अथवा वाक्यों द्वारा हुआ उनको मन्त्र कहते हैं। मन्त्र तीन प्रकार के हैं- (१) ज्ञानार्थक (२) विचारार्थक और (३) सत्कारार्थक । इनकी व्युत्पत्ति इस प्रकार से बतलायी गयी है : दिवादिगण की मन् धातु (ज्ञानार्थ प्रतिपादक ) में ष्ट्रन् प्रत्यय लगाने से 'मन्त्र' शब्द व्युत्पन्न होता है, जिसका अर्थ है'मन्यते (ज्ञायते ) ईश्वरादेशः अनेन इति मन्त्रः' । इससे ईश्वर के आदेश का ज्ञान होता है, इसलिए इसको मन्त्र कहते हैं। तनादिगण की मन् धातु (विचारार्यक) में ट्रन् प्रत्यय लगाने से भी मन्त्र शब्द बनता है, जिसका अर्थ - मन्यते ( विचार्यते ) ईश्वरादेशो येन स मन्त्रः', अर्थात्
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