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संग्रह जिस संहिता में है उसका नाम सामवेद है । ब्रह्मा का काम अध्यक्षपद से सम्पूर्ण यज्ञ का निरीक्षण करना है । वह चारों वेदों का ज्ञाता होता है । अथर्ववेद में अन्य तीनों वेदों की सामग्री से अतिरिक्त कुछ और भी है । अतः ब्रह्मा का विशिष्ट वेद अथर्वद है ।
वेद के प्रकारों के बारे में शतपथ ब्रा० में लिखा है कि अग्नि से ऋग्वेद, वायु से यजुर्वेद और सूर्य से सामवेद प्राप्त हुए हैं। मनुसंहिता के अनुसार तो ऋक्, यजुः और साममन्त्रों को ही त्रिवृद्वेद कहते हैं । मुण्डकोपनिषद् में ऋक् आदि चार वेदों को अपरा विद्या कहा गया है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास और पुराणादि अपरा विद्या हैं । वेदों की नित्यता प्रमाणित करते हुए कहा जाता है कि ज्ञानरूप वेद प्रलय के समय भी ओंकार रूप में वर्तमान रहते हैं । ऐसे अनादि, अनश्वर और नित्य ब्रह्मवाक्य को सृष्टि की प्रथम अवस्था में रचित आदिविद्या कहा जाता है जो सकल प्रपंचविस्तारक है ।
मनुष्य द्वारा न रचे जाने और ईश्वरकृत होने के कारण ही वेदों को अपौरुषेय कहते हैं। ब्रह्मस्वरूप और नित्य ज्ञान का विस्तार वेदों द्वारा ही होता है। ऋषि लोग वेद के द्रष्टा मात्र हैं । वेद नित्य हैं इसलिए समाधिस्थ ऋषियों के अन्तःकरण में ही उनका प्रकाश होता है । ऋषियों को वेदों का ज्ञान प्रलयकालोपरान्त ब्रह्माजी से तपस्या द्वारा प्राप्त हुआ था ।
वेद की नित्यता इसलिए स्वीकार की जाती है कि वेद ज्ञानरूप हैं। वे ज्ञानरूप ईश्वर के हृदय में प्रलयदशा में स्थित रहते हैं। यह निष्क्रिय दशा परमात्मा की श्वासहीन योगनिद्रा है। ईश्वर की जाग्रत् अवस्था सृष्टि है और निद्रावस्था प्रलय । प्रलयोपरान्त जब प्रलयविलीन प्राणियों का संस्कार क्रियोन्मुख होता है तब भगवान् अपनी योगनिद्रा छोड़कर सृष्टि की इच्छा करते हैं। यह श्वासयुक्त सृष्टि की अवस्था उनकी सिसृक्षा कही जाती है । वेद में जो भगवान् की 'एकोऽहं बहु स्यां प्रजायेय' इच्छा व्यक्त की गयी है वह एकता से अनेकता की ओर उन्मुख होकर प्रजासृष्टि की ही इच्छा है ।
मनुसंहिता में कहा गया है कि सिसृक्षा से परमात्मा द्वारा जल की सृष्टि हुई; यह 'अप्' साधारण जल नहीं हो सकता । यह वस्तुतः समष्टि संस्कार रूप 'कारणवारि है।
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वैद
परमात्मा सिक्षा से सर्वप्रथम इन संस्कारों को उद्ध करते हैं, फिर उनमें क्रियाशक्ति का बीज आरोपित करते है। यह क्रियाशक्ति परिपुष्ट होकर देदीप्यमान सूर्य की तरह चमकती है, जिससे ब्रह्माजी की उत्पत्ति होती है। यह सृष्टि की प्रारंभिक अवस्था है। यह मनुष्य के मग और वाणी की पहुँच से बाहर है । यह मन और वाणी से परे ब्रह्माजी का सूक्ष्म शरीर ज्योतिर्मय कारणवारि में क्रियाशालिनी समष्टि प्राणशक्ति के रूप में स्थित रहता है ।
मुण्डकोपनिषद् के एक मंत्र की व्याख्या करते हुए स्वामी शंकराचार्य ने बड़ा ही सुन्दर तर्क दर्शाया है कि भूतयोनि ब्रह्मतपस्या से उद्भूत है। इससे मूल तत्व (अन्न) विकसित होता है । फिर यह अव्याकृत प्रकृति (अन्न) समष्टि प्राणरूप हिरण्यगर्भ को उत्पन्न करती है । यह हिरण्यगर्भ श्रुतियों के अनुसार ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर ही है, जिसमें सृष्टिकारिणी क्रियाशक्ति विराजमान है। इससे मन, सत्य और लोक की सर्वप्रथम सृष्टि हुई ब्रह्मा के इस सूक्ष्म शरीर में सर्वप्रथम परमात्मा ने ज्ञानरूप वेदराशि का संचार किया। इसीलिए वेदों को अपौरुषेय कहा जाता है।
जिस प्रकार ब्रह्माण्डप्रकृति में व्यापक प्राण ब्रह्मा का सूक्ष्म शरीर है और उसी के अंशभूत जगत् प्राणियों के प्राण हैं, उसी तरह समष्टि अन्तःकरण ही ब्रह्मा का स्वरूप माना जाना चाहिए । इस समष्टि व्यापक अन्तःकरण से व्यष्टि अन्तःकरण की स्थिति है। इसी लिए वाजसनेयी ब्राह्मणोपनिषद् में ब्रह्मा को 'अन्तःकरण' और 'मुक्ति' की संज्ञा दी गयी हैं । इसी तरह उन्हें 'मनो महान् मतिर्ब्रह्मा' कहा गया है। यहाँ मन शब्द मूलतः करणवाचक है, इसलिए ब्रह्मा को मन, बुद्धि, चित्त तथा अहंकार इन चार तत्त्वों से युक्त चतुर्मुख कहा गया है। यह समष्टि अन्तःकरणरूपी ब्रह्मा का अंश ऋषिरूपी व्यष्टि में व्याप्त रहता है । जब ऋषि लोग तपस्या और योगसाधना के द्वारा समाधिस्थ हो जाते हैं उसी अवस्था में उन्हें सब वेदमंत्रों का साक्षात्कार होता है । बात यह है कि सामान्य रूप से इन्द्रियसापेक्ष व्यष्टि, व्यापक अन्तःकरण से विच्छिन्न होने के कारण अल्पज्ञ रहता है, पर जितेन्द्रिय योगी समष्टि अन्तःकरण के साथ मिलकर समाधिस्थ हो जाते हैं। वे सूक्ष्म रूप से बह्मा के साथ एकात्मा होने के
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