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विष्णुलक्षवतिव्रत-वृक्षोत्सवविधि
विधान है। इस दिन 'नमो नारायणाय' का उच्चारण प्रारम्भ हो चुकती है और सूर्य मेघाच्छन्न रहता है। करके सूर्य को अर्घ्य देना चाहिए । श्वेत पुष्पों से विष्णु विष्णु सूर्य का ही एक रूप है । सूर्य के मेघाच्छन्न होने की पूजा करते हुए निम्न मंत्र का उच्चारण किया जाय, के कारण यह विश्वास किया जाता है कि विष्णु शयन 'देवाधिदेव' धरा के आधार, हे आशुतोष ! इन पुष्पों को करने चले गये हैं। यह स्थिति प्रायः कार्तिक शुक्ल स्वीकार कर कृपा कर मेरे ऊपर प्रसन्न होइए।' व्रती एकादशी तक रहती है जब कि निर्मंघ स्वच्छ आकाश में को ज्वार, बाजरा (श्यामाक) का भोजन अथवा उस धान्य प्रबोध एकादशी के दिन देवोत्थान (विष्ण के जागरण) का का आहार करना चाहिए जो ६० दिनों में पककर तैयार उत्सव तथा व्रत मनाया जाता है । दे० 'प्रबोधएकादशी' । होता है तथा जो मसालों के साथ बो दिया गया है विष्णश्रंखलायोग-यदि द्वादशी एकादशी से संयुक्त हो (मिर्च, धनियाँ, जीरा आदि ) या धान अथवा जौ अथवा
तथा उस दिन श्रवण नक्षत्र हो तो वह विष्णुशृंखला नीवार (जंगली धान) का आहार करना चाहिए। तद
कहलाता है । इस व्रत के आचरण से मनुष्य सारे पापों नन्तर व्रत की पारणा करनी चाहिए । इससे व्रती विष्णु
से मुक्त होकर सायुज्य मुक्ति प्राप्त कर लेता है। लोक प्राप्त कर लेता है।
वीरवत-नवमी के दिन व्रती को एकभक्त पद्धति से विष्णुलक्षवर्तिवत-किसी पवित्र तिथि तथा लग्न के
आहार करके कन्याओं को भोजन कराकर सुवर्ण का समय रुई की धूल तथा तिनके आदि साफ करके चार कलश, दो वस्त्र तथा सुवर्ण दान करना चाहिए। एक अंगुल लम्बा धागा काता जाय। इस प्रकार पाँच धागों
वर्षपर्यन्त इस व्रत का अनुष्ठान होना चाहिए। प्रति को कातकर एक बत्ती बनायी जाय । इस प्रकार की एक नवमी को कन्याओं को भोजन कराया जाना चाहिए। लाख बत्तियाँ घी में भिगोकर किसी चाँदी या काँसे के इस व्रत से व्रती प्रत्येक जीवन में अत्यन्त रूपवान् होता पात्र में रखकर भगवान् विष्णु की प्रतिमा के पास ले
है और उसे किसी शत्रु से भय आदि नहीं रहता। अन्त जानी चाहिए। इनको ले जाने का सबसे उचित समय
में वह शिवजी की राजधानी प्राप्त कर लेता है । ऐसा कार्तिक, माघ या वैशाख मास है, वैशाख सर्वोत्तम है । प्रति
लगता है कि इस व्रत के देवता या तो शिव हैं या उमा दिन एक सहस्र अथवा दो सहस्र बत्तियाँ विष्णु के सम्मुख अथवा दोनों ही है। प्रज्वलित की जाय । उपर्युक्त मासों में से किसी भी मास
वीरासन-समस्त कृच्छव्रतों में वांछनीय आसन वीरासन की पूर्णिमा को व्रत समाप्त कर देना चाहिए। तदनन्तर
कहा जाता है । हेमाद्रि, १.३२२ (गरुडपुराण को उद्धृत उद्यापन किया जाना चाहिए। आजकल दक्षिण भारत
करते हुए) तथा २.९३२ । अघमर्षण व्रत में भी इसका में महिलाओं द्वारा इस व्रत का आयोजन किया जाता है।
उल्लेख मिलता है। अघमर्षण का उल्लेख शंखस्मति, विष्णुशङ्करवत-इस व्रत में उसी विधि का अनुसरण १८.२ में आया है । इससे समस्त पापों का नाश होता है। करना चाहिए जो उमामहेश्वरव्रत के विषय में पीछे
वृक्षोत्सवविधि-भारत में वृक्षारोपण को अत्यन्त महत्त्व कही गयी है। भाद्रपद अथवा आश्विन मास में मृगशिरा, दिया जाता है मत्स्यपुराण । (५९, श्लोक १-२०) । ठीक आर्द्रा, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र के
__वैसे ही पद्मपुराण (५.२४,१९२-२११) में वृक्षोत्सव के अवसर पर इस व्रत का आचरण करना चाहिए। यहाँ विधान के विषय में पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है। संक्षेप में अन्तर केवल इतना है कि विष्णु को पीताम्बर धारण कराये
उसकी विधि यह है कि सौंषधियों से युक्त जल से वृक्षों के जाँयगे तथा दक्षिणा में भी विष्णु को सुवर्ण तथा शंकर को उद्यानों को तीन दिन सींचा जाय । सुगन्धित चूर्ण से तथा मोती भेंट किये जायगे ।
वस्त्रों से वृक्षों का शृंगार करना चाहिए । सुवर्ण की बनी विष्णुशयनोत्सव-आषाढ़ शुक्ल एकादशी को भगवान् विष्णु हुई (कान छेदने वाली) सुई से वृक्षों को छेदकर उनमें
का शयनोत्सव मनाया जाता है । यह उत्सव मलमास सुनहरी पेंसिल से सिन्दूर भर देना चाहिए । वृक्षों से बने अथवा पुरुषोत्तम मास में कदापि नहीं मनाया जाना मचानों पर सात या आठ सोने के फल लगाये जाँय तथा चाहिए। दे० निर्णयसिन्धु, १०२ । इस समय तक वर्षा वृक्षों के नीचे कुछ ऐसे कलश भी स्थापित किये जाँय
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