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वामाचारी-वायु (वात)
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मद्यकी, रजकी, क्षीरकी और धनवल्लभा ये आठ स्त्रियाँ कुलयोगिनी हैं। ये ही समस्त सिद्धियों की देने वाली हैं। वामाचारी-शक्ति की उपासना चार रूपों में होती है : (१) मन्दिर में सर्वसाधारण द्वारा देवी की पूजा (२) चक्र- पूजा (३) साधना या योगाभ्यास तथा (४) अभिचार (जादू-मन्त्र)। इनमें दूसरी प्रणाली अर्थात् 'चक्रपूजा' प्रमुख पद्धति है। चक्रपूजकों को वामाचारी भी कहते हैं। इसमें समान संख्यक पुरुष तथा स्त्रियाँ जो किसी भी जाति के होते हैं और समीपी सम्बन्धी भी हो सकते हैं (यथा पति, पत्नी, माँ, बहिन, भाई) एकान्त में मिलते हैं, विशेष कर रात को, और एक गोलाई में बैठ जाते हैं। देवी का प्रतिनिधित्व एक यन्त्र या मूर्ति द्वारा होता है जिसे मध्य में रखा जाता है । मन्त्रोच्चारण के साथ पञ्चमकारों
का सेवन होता है। वायवीय संहिता--शिवपुराण में कुल सात खण्ड हैं। इसमें सातवाँ खण्ड वायवीय संहिता है । इसके दो भाग है पूर्व और उत्तर। वायुपुराण-यह प्राचीनतम महापुराणों में माना जाता है। बाणभट्ट ने कादम्बरी में इसका उल्लेख किया है (पुराणे वायुप्रलपितम्) । इसमें रुद्रमाहात्म्य भी सम्मिलित है । यह शैव पुराण है तथा शिव की प्रशंसा में लिखा गया है। इसमें पाशुपतयोग का महत्त्वपूर्ण वर्णन है जो अन्य पुराणों में नहीं मिलता। अठारह महापुराणों की तालिका में वायुपुराण तथा शिवपुराण दोनों साथ न होकर कोई एक गिना जाता है । परम्परानुसार इसमें २४ हजार श्लोक हैं, किन्तु ऐसी कोई पोथी अभी तक प्राप्त नहीं है। इस समय जो प्रति उपलब्ध है उसमें लगभग ११ सहस्र श्लोक हैं। इसमें चार खण्ड तथा ११२ अध्याय हैं। ये खण्ड पाद कहलाते हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं : (१) प्रकियापाद (२) अनुषङ्गपाद (३) उपोद्घातपाद और (४) उपसंहारपाद । प्रथम पाद में सृष्टिवर्णन बड़े विस्तार के साथ किया गया है। इसके पश्चात् चतुराश्रमविभाग का विवेचन है। इस पुराण में भौगोलिक सामग्री प्रचुर मात्रा में पायी जाती है। जम्बूद्वीप तथा अन्य द्वीपों का विस्तृत एवं सुन्दर वर्णन है । खगोल का वर्णन भी उपलब्ध होता है । कतिपय अध्यायों में युग, यज्ञ, ऋषि, तीर्थादि का वर्णन है। वेद तथा वेद की शाखाओं का
वर्णन सम्यक् हुआ है जो वैदिक साहित्य के अध्ययन के लिए उपयोगी है। प्रजापति, कश्यप तथा अन्य ऋषियों के वंशों का इतिहास पाया जाता है। आगे चलकर श्राद्ध का वर्णन और गयामाहात्म्य है। संगीत का वर्णन भी सुन्दर और मनोरंजक है। वायु में वंशानुचरित का वर्णन ऐतिहासिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है।
यह पुराण साम्प्रदायिक होते हुए भी धार्मिक दृष्टि से उदार है। इसके कई अध्यायों में विष्णु तथा उनके विभिन्न अवतारों का भक्तिपूर्ण तथा सुन्दर वर्णन है। दक्ष प्रजापति ने जो शिव की स्तुति की है वह रुद्राध्याय का स्मरण दिलाती है। वायु (वात)-वैदिक देवताओं को तीन श्रेणियों में विभक्त किया गया है: पार्थिव, वायवीय एवं आकाशीय। इनमें वायवीय देवों में वायु प्रधान देवता है। इसका एक पर्याय वात भी है । वायु, वात दोनों ही भौतिक तत्त्व एवं दैवी व्यक्तित्व के बोधक है किन्तु वायु से विशेष कर देवता एवं वात से आँधी का बोध होता है। ऋग्वेद में केवल एक ही पूर्ण सूक्त वायु की स्तुति में है (१.१३९) तथा वात के लिए दो हैं (१०.१६८,१८६)। वायु का प्रसिद्ध विरुद 'नियुत्वान्' है जिससे इसके सदा चलते रहने का बोध होता है। वायु मन्द के सिवा तीन प्रकार का होता है : (१) धूल-पत्ते उड़ाता हुआ (२) वर्षाकर एवं (३) वर्षा के साथ चलने वाला झंझावात । तीनों प्रकार वात के हैं जबकि वायु का स्वरूप बड़ा ही कोमल वर्णित है। प्रातःकालीन समीर (वायु) उषा के ऊपर साँस लेकर उसे जगाता है, जैसे प्रेमी अपनी सोयी प्रेयसी को जगाता हो। उषा को जगाने का अर्थ है प्रकाश को निमंत्रण देना, आकाश तथा पृथ्वी को द्युतिमान् करना। इस प्रकार प्रभात होने का कारण वायु है क्योंकि वायु ही उषा को जगाता है।
इन्द्र एवं वायु का सम्बन्ध बहुत हो समीपी है और इस प्रकार इन्द्र तथा वायु युगलव का रूप धारण करते हैं । विद्युत् एवं वायु वर्षाकालीन गर्जन एवं तूफान में एक साथ होते हैं, इसलिए इन्द्र तथा वायु एक ही रथ में बैठते है-दोनों के संयुक्त कार्य का यह पौराणिक व्यक्तीकरण है । सोम की प्रथम घूट वायु ही ग्रहण करता है । वायु अपने को रहस्यात्मक (अदृश्य) पदार्थ के रूप में प्रस्तुत करता है। इसकी ध्वनि सुनाई पड़ती है किन्तु
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