________________
५९०
-
संग्रह है। आवेदनपत्र के रूप में ये स्तुतियाँ पद्यों में रची गयी हैं, अतः इस संग्रह का नाम विनयपत्रिका पड़ा । तुलसी साहित्य में रामचरितमानस के पश्चात् इसका दूसरा स्थान है । रचना में दास्य और दैन्य भाव की प्रधानता है । विभूतिद्वादशी – वैशाख, कार्तिक, मार्गशीर्ष, फाल्गुन अथवा आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की दशमी को इस व्रत का आरम्भ होता है। व्रती नियमों (अनिषिद्ध बातों का ) आचरण करे | एकादशी के दिन उपवास करते हुए जनार्दन (मूर्ति) का पूजन करे चरणों से प्रारम्भ कर सिरपर्यन्त भगवान् की प्रतिमा का क्रमशः पूजन करे । भगवान् की प्रतिमा के सम्मुख कलश या किसी जलपूर्ण पात्र में सोने की मछली बनाकर रखी जाय, रात्रि को भगवान् की कथाएँ कहकर जागरण किया जाय । दूसरे दिन प्रातः काल निम्न शब्द बोलते हुए - "विष्णु भगवान् अपने महान् प्रकाश से कभी विमुक्त नहीं होते, उसी प्रकार आप मुझे संसार के शोक पडू से मुक्त करें", प्रार्थना करे। प्रतिमास वह दस अवतारों में से एक अबतार की प्रतिमा एवं दत्तात्रेय तथा व्यासजी की प्रतिमाओं का दान करे। उनके साथ द्वादशी को एक नील कमल का भी दान किया जाय । द्वादश द्वादशियों के व्रतों का आचरण करने के बाद अपने गुरु अथवा आचार्य को एक लवणाचल पर्योपयोगी समस्त वस्त्र, एक गौ (यदि व्रती राजा महाराज हो तो ) ग्राम या खेत ( गाँव का मुख्य खेत) तथा अन्यान्य ब्राह्मणों को गोएँ तथा वस्त्र दान में दिये जाँय | यह विधि तीन वर्षों तक चलनी चाहिए। इन आचरणों से व्रती समस्त पापों से मुक्त होकर कम से कम एक सौ पितरों का भी उद्धार कर लेता है। 'लवणाचल' दान के लिए दे० पा० वा० काणे धर्मशास्त्र का इति
पङ्क
हास, भाग २, पृ० ८८२ (मत्स्यपुराण, ८४. १-९) । विरूपाक्षव्रत - पौष शुक्ल चतुर्दशी को इस व्रत का आरम्भ होता है। इसके अनुसार भगवान् शिव की एक वर्ष तक पूजा करनी चाहिए। व्रत के अन्त में किसी ब्राह्मण को समस्त पदार्थ तथा एक ऊँट दान किया जाय । इससे समस्त राक्षसों के भय से तथा रोगों से मुक्ति मिलती है एवं सकल कामनाओं की पूर्ति होती है। विवर्त - अद्वैत वेदान्त का एक सिद्धान्त । ब्रह्म और जगत् के सम्बन्ध को समझाने के लिए इसका विकास हुआ ।
Jain Education International
विभूतिद्वादशी-विशोक संक्रान्ति
इसके अनुसार जगत् न ब्रह्म की सृष्टि है और न उसका परिणाम; जगत् ब्रह्म का विवर्त ( वृत्ताकार चक्रगति से उत्पन्न भ्रममात्र) है, इसलिए यह भ्रामक और अवास्तविक है | दे० 'अद्वैतवाद' तथा 'शङ्कर' । विशिष्टाद्वैत एक प्रकार के इस जैसे वेदान्त का सम्प्रदाय। इसका अर्थ है 'विशिष्ट (विशेषण युक्त) अद्वैत' । इसके प्रवर्तक आचार्य रामानुज थे । इस सम्प्रदाय के अनुसार ब्रह्म ऐकान्तिक होते हुए भी पुरुष (ईश्वर) है । उसके दो अंश (विशेषण) हैं - चित् ( जीवात्मा) और अचित् (जड़ जगत् ), जो वास्तविक और उससे भिन्न हैं । इन्हीं तीनों तत्वों ( तत्वत्रय) से विश्व संघटित है। इन तीनों में ऐक्य है किन्तु अभेद नहीं। जीवात्मा ईश्वर की कृपा से ही मुक्ति पा सकता है। इस मत का प्रतिपादन रामानुज द्वारा ब्रह्मसूत्र के श्रीभाष्य में हुआ है । दे० 'रामानुज' । विशोकद्वादशी - आश्विन शुक्ल दशमी को रात्रि को व्रती संकल्प करे - " मैं कल एकादशी को उपवास करके भगवान् केशव की आराधना करूँगा और द्वादशी के दिन भोजन ग्रहण करूंगा।" उस दिन केशव की आपादमस्तक पूजा होनी चाहिए । एक मण्डल बनाकर उस पर चतुष्कोण वेदिका बनानी चाहिए। उस पर अनाज साफ करनेवाला नया सूप रखकर उसमें लक्ष्मी की, जिसे विशोका ( जो शोक रहित करती है) भी कहते हैं, स्थापना करके पूजा की जाय तथा प्रार्थना करते हुए कहा जाय कि हे विशोका देवी! हमारे शोकों का नाश करो, हमें समृद्धि तथा सफलता प्रदान करो। समस्त रात्रियों को ऐसा पानी पिया जाय जिसमें दर्भ पड़े हों। रात्रि में नृत्य तथा गान हो, ब्राह्मणों का सम्मान किया जाय। यह क्रिया प्रति मास चले । व्रत के अन्त में पर्यङ्क के उपयुक्त वस्त्र, गुड़धेनु तथा शूर्प का लक्ष्मीजी की मूर्ति के साथ दान करना चाहिए । मत्स्य - पुराण में इसका तथा गुड़धेनु का वर्णन है, जो इस व्रत का गौण भाग है। गुड़धेनु के लिए दे० पा० वा० काणे : धर्मशास्त्र का इतिहास २, पृ० ८८०-८१ । विशोकसंक्रान्ति-जब अयन के दिन अथवा विषुव के दिन व्यतीपात योग हो, तो व्रती को तिलमिश्रित जल से स्नान करना चाहिए तथा एकभक्त विधि से आहार करना चाहिए। तब यह सूर्य की सुवर्णप्रतिमा को पञ्चगव्य से स्नान कराकर गन्ध, पुष्पादि अर्पण कर दो रक्त वस्त्र पहनाये, तदनन्तर उसे ताम्रपात्र में रखकर सूर्य के
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org