________________
विश्वरूपव्रत-विष्णु
भिन्न-भिन्न नामों से आपादमस्तक उनकी पूजा की आहार करना चाहिए । उस दिन देवों, पितरों तथा दर्भो जाय। यह क्रम एक वर्षपर्यन्त चलना चाहिए। वर्ष के की बनायी हुई विष्टि का पुष्पादि से पूजन किया जाय । अन्त में सूर्य के पूजन का विधान है । इस अवसर पर १२ इस अवसर पर विष्टि को कृशरा अर्थात् खिचड़ी का कपिला गौओं का अथवा निर्धन होने पर केवल एक गौ । नैवेद्य अर्पित करना चाहिए । काले वस्त्रों, काली गौ तथा का दान किया जाय। इससे दीर्घ आयु प्राप्त होती है, काले कम्बल का दान इस अवसर पर किया जाय । विष्टि स्वास्थ्य तथा समृद्धि की सुरक्षा होती है।
तथा भद्रा का एक ही अर्थ है। विश्वरूपव्रत-अष्टमी अथवा चतुर्दशी के दिन यदि शनि-विष्णु-आदित्य वर्ग के वैदिक देवताओं में एक । यद्यपि वार तथा रेवती नक्षत्र हो तो उस दिन इस व्रत का अनु- विष्णु की स्तुति में ऋग्वेद (१.१५४) का एक ही सूक्त ष्ठान करना चाहिए । शिवजी इसके देवता हैं। इस दिन पाया जाता है, किन्तु वह इतना सारगर्भित है कि उसके शिवलिङ्ग का महाभिषेक स्नान कराया जाय । कर्पूर को तत्त्वों से विष्णु को हिन्दू त्रिमूर्ति में आगे चलकर अङ्गराग की भाँति लगाया जाय, श्वेत कमल तथा अन्य प्रमुख स्थान मिला। उस विष्णुसूक्त में उनके तीन अनेक आभूषण चढ़ाये जायँ, धूप के रूप में कर्पूर जलाया चरणों ( त्रिविक्रम, उरुक्रम ) की विशेषता पायी जाती जाय, घी तथा खीर का नैवेद्य अर्पण किया जाय, कुशों है। ये बालसूर्य, मध्याह्नसूर्य तथा सायंसूर्य के तीन से भीगा हुआ जल पिया जाय तथा रात्रि को जागरण स्थान हैं। उनका उच्चतम स्थान मध्याह्न का है। इस किया जाय । इस अवसर पर आचार्य को गज अथवा स्थान का जो वर्णन पाया जाता है वह परवर्ती विष्णुलोक अश्व का दान करना चाहिए। इससे व्रती वह सब अथवा गोलोक का पूर्वरूप है। विष्णु का भक्त वहाँ प्राप्त कर लेता है जिसकी वह इच्छा करता है, जैसे पुत्र, पहुँच कर आनन्द का अनुभव करता है। वहाँ भूरिश्रृंग राज्य, आनन्दादि । इसी कारण इसका नाम है विश्वरूप गौएँ (रश्मियाँ) विचरती हैं और मधु की धाराएँ प्रवाहित (साहित्यिक अर्थ समस्त रूप)।
होती हैं । विष्णु अपने चरण दयाभाव से उठाते हैं। उनका विष्टिवत अथवा भद्रावत-ज्योतिष ग्रन्थों में करणों का
उद्देश्य है संसार को दुःख से मुक्त करने का और मानवों विवेचन किया गया है। प्रत्येक तिथि के आधे-आधे भागों
के लिए पृथ्वी को उपयुक्त आवास बनाने का (ऋ० ६. को करण कहते हैं जो सब ग्यारह है। उनकी दो श्रेणियाँ ४९. १३) । वे संसार के रक्षक और संरक्षक दोनों हैं। है-चर तथा स्थिर, अर्थात् चलनशील और अचल। विष्णु कई रूप धारण करते हैं। ब्राह्मण ग्रन्थों में विष्ण प्रथम की कुल संख्या सात है जिनमें से एक विष्टि है। की कल्पना और विष्णुयागों का और विस्तार हुआ। पुराणों विष्टि किसी तिथि का अर्धाश होता है । ज्योतिष शास्त्र के में विष्णु सम्बन्धी कल्पनाओं, कथाओं और पूजा पद्धति ग्रन्थों ने इसे बुरे, दुष्ट, कपटी भूत-प्रेतादि के समान श्रेणी का अपरिमित विस्तार हुआ है। प्रदान की है। यह तीस घड़ियों का समवेत काल है जो त्रिमूर्ति की कल्पना में विष्णु का स्वरूप निखरा । ये असमानता पूर्वक उसके मुख, कण्ठ, हृदय, नाभि, कटि विश्वात्मा के विश्वरूप के सात्त्विक तत्त्व हैं, जिनका मुख्य तथा पूँछ ( क्रमशः ५, १, ११, ४, ६, ३ घड़ियों) में कार्य संयोजन, धारण, केन्द्रीकरण तथा संरक्षण है। विश्व विभाजित किया गया है। स्मृतिकौस्तुभ (५६५-५६६) में में जो प्रवृत्तिपा केन्द्र की ओर जाती हैं, ऐक्य की शक्ति इसे सूर्य की पुत्री तथा शनि की बहिन बतलाया गया है । उत्पन्न करती हैं, अस्तित्व तथा वास्तविकता को दृढ तीन पग वाली विष्टि का मुख गधे का है । विष्टि साधा- करती हैं, प्रकाश और सत्य का निर्देश करती हैं, वे विष्णु रणतः ध्वंसात्मक स्वभाव वाली है अतएव किसी शुभ कार्य से उद्भूत होती हैं। विष्णु शब्द की व्युत्पत्ति 'विष्लू' के आरम्भ के समय इसे त्यागना चाहिए। किन्तु शत्रुओं धातु से हुई है, जिसका अर्थ है सर्वत्र फैलना अथवा को नष्ट करने अथवा उन्हें विष इत्यादि देने के समय व्यापक होना । महाभारत (५. ७०; १३. २१४) के अनुयह बड़ी अनुकूल पड़ती है (बृ० संहिता ९९.४)। जिस सार विष्णु सर्वत्र व्याप्त हैं, वे समस्त के स्वामी हैं, वे दिन विष्टि हो उस दिन उपवास करना चाहिए। यदि विध्वंसक शक्तियों का दमन करते हैं। वे इसलिए विष्णु विष्टि रात्रि में पड़े तो दो दिनों तक एकभक्त पद्धति से हैं कि वे सभी शक्तियों पर प्रभुत्व प्राप्त करते हैं ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org