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वारकरी (सम्प्रदाय)-वारिव्रत
कोई इसका रूप नहीं देखता । इसकी उत्पत्ति अज्ञात है। एक बार इसे स्वर्ग तथा पृथ्वी की सन्तान कहा गया है (ऋ० ७.९.३) । वैदिक ऋषि वायु के स्वास्थ्य सम्बन्धी गुणों से सुपरिचित थे। वे जानते थे कि वायु ही जीवन का साधन है तथा स्वास्थ्य के लिए वायु का चलना परमावश्यक है । वात रोगमुक्ति लाता है तथा जीवनी शक्ति को बढ़ाता है । उसके घर में अमरत्व का कोष भरा पड़ा है । उपर्युक्त हेतुओं से वायु को विश्व का कारण, मनुष्यों का पिता तथा देवों का श्वास कहा गया है। इन वैदिक कल्पनाओं के आधार पर पुराणों में वायु सम्बन्धी बहुत सी पुराकथाओं की रचना हुई। वारकरी (सम्प्रदाय)--दक्षिण भारत के उदार भागवत सम्प्रदाय (शिव तथा विष्णु की एकता के सम्प्रदाय) की तीन शाखाएँ हो गयी है : (१) वारकरी सम्प्रदाय (२) रामदासी सम्प्रदाय और (३) दत्त सम्प्रदाय । वारकरी सम्प्रदाय वालों की विशेषता है तीर्थयात्रा। उनके प्रधान उपास्य पण्ढरपुर के भगवान् विट्ठल या बिठोवा हैं। वारव्रत-अग्निपुराण, अ० १८५; कृत्यकल्पतरु, ८-३४; दानसागर, पृ० ५६८-५७०; हेमाद्रि का चतुर्वर्गचिन्तामणि, १.५१७-५२१; कृत्यरत्नाकर, ५९३-६१०; स्मृ० कौ०, ५४९-५८८ तथा व्रतार्क जैसे ग्रन्थों में रविवार, सोमवार तथा मंगलवार के दिन व्रत करने का उल्लेख किया गया है। वाराणसी (बनारस)-काशी का दूसरा नाम । वरणा और असी के बीच बसने के कारण इसका नाम वाराणसी पड़ा। इसी का अपभ्रंश 'बनारस' है। प्राचीन काल में जनपद का नाम काशी था और वाराणसी उसकी राजधानी थी । अति प्राचीन काल से भारत की विद्या व धर्म की राजधानी गंगा के बायें तट पर बसी वाराणसी ही रही है। यह शिव की प्रिय नगरी और अनेकानेक धर्म व सम्प्रदायों की जननी है। शैव धर्म, जैन तीर्थङ्कर, गौतम बुद्ध, शंकराचार्य, वल्लभ, रामानन्द, कबीर, तुलसी आदि की यह कर्मभूमि रही है । गङ्गा का यहाँ दक्षिण से उत्तर को बहाव वाराणसी को और भी महत्त्व प्रदान करता है । गङ्गा के तट वर वाराणसी के घाट अपूर्व शोभा पाते हैं। इन पर नित्य स्नान करने वाले प्रातःकाल गंगा के सामने दूसरी ओर से निकलते हुए भगवान् भास्कर का दर्शनकर कृतार्थ हो जाते हैं। शिव तथा
गंगा के अतिरिक्त वैष्णव, बौद्ध, जैन एवं अनेकानेक हिन्दू सम्प्रदायों के यहाँ मन्दिर तथा मठ हैं। यदि इसे मन्दिरों की नगरी कहें तो अतिशयोक्ति न होगी।
लगभग १५०० मन्दिर इस नगर में हैं। यहाँ का प्रत्येक मन्दिर, मठ, आश्रम यहाँ तक कि आचार्यों के घर एक-एक विद्यालय है । इस परम्परा का निर्वाह आज भी हो रहा है। आजकल तीन विश्वविद्यालयों-काशी हिन्दू विश्व विद्यालय, संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय और काशी विद्यापीठ के अतिरिक्त अनेकानेक विद्यालय तथा महाविद्यालय यहाँ भरे हुए हैं। उपर्युक्त महत्ताओं के कारण काशी ( वाराणसी ) हिन्दू मात्र का प्रसिद्ध तीर्थ है । प्रत्येक हिन्दू की यह इच्छा होती है कि वह विश्वनाथ की इस प्यारी नगरी में ही मरे । प्रत्येक ग्रहण के अवसर पर सारे भारत की जनता इस नगरी में उमड़ आती है, गंगास्नान व काशी-विश्वेवर के दर्शन कर अपने को धन्य और कृतार्थ मानती है । दे० 'काशी' । वाराह अवतार-तैत्तिरीय ब्राह्मण और शतपथ ब्राह्मण में इस अवतार का वर्णन है। यह विष्णु का तीसरा अवतार है। इसका वराहपुराण में विस्तृत वर्णन है । जब हिरण्याक्ष नामक दैत्य ने पृथ्वी को चुराकर पाताल में रख दिया था तब विष्णु ने वराह रूप धारण कर अपने दाँतों से पृथ्वी का उद्धार किया। इस पौराणिक घटना के नाम पर इस कल्प का नाम ही श्वेत वाराहकल्प हो गया है । दे० 'वराहावतार'। वाराहो-प्रत्येक देवता की शक्तियों की उपासना का प्रचलन शाक्त धर्म की देन है। इस प्रकार वराह की शक्ति का नाम वाराही है । मूर्तियों में इसका अङ्कन हुआ है। वाराहीतन्त्र-आगमतत्त्वविलास में उत्धृत एक तन्त्र । इस तन्त्र से पता लगता है कि जैमिनि, कपिल, नारद, गर्ग, पुलस्त्य, भृगु, शुक्र, बृहस्पति आदि ऋषियों ने भी कई उपतन्त्र रचे हैं। वाराहीतन्त्र में इन तन्त्रों का नाम उनकी श्लोकसंख्या सहित दिया हुआ है। वारिव्रत-यह मासवत है। प्रतीत होता है कि इसके देवता ब्रह्मा हैं । व्रती को चैत्र, ज्येष्ठ, आषाढ़, माघ अथवा पौष में अर्थात् चार मास अयाचित पद्धति से आहार करना चाहिए । व्रत के अन्त में वस्त्रों से ढका एक कलश, भोजन तथा तिलों से परिपूर्ण एक पात्र, जिसमें सुवर्ण खण्ड भी
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