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वारण उपपुराण-वाल्मीकि
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पड़ा हो, दान करना चाहिए। इतने कृत्यों के उपरान्त और भाई भृगु ऋषि थे । वरुण का नाम प्रचेत भी है, इसलिए व्रती ब्रह्माजी के लोक को प्राप्त होता है।
वाल्मीकि प्राचेतस् नाम से विख्यात हैं। तैत्तिरीय उपनिवारुण उपपुराण-उन्तोस उपपुराणों में से एक वारुण षद् में वर्णित ब्रह्मविद्या वरुण और भृग के संवादरूप में उपपुराण भी है।
है । इससे स्पष्ट है कि भृगु के अनुज वाल्मीकि भी परम वारुणी-चैत्र कृष्ण त्रयोदशी को यदि शतभिषा नक्षत्र हो । ज्ञानी और तपस्वी ऋषि थे। उग्र तपस्या या बह्मचिन्तन (जिसके स्वामी वरुण देवता हैं) तो वह वारुणी कह- में देहाध्यास न रहने के कारण इनके शरीर को दीमक ने लाती है तथा इस पर्व पर गंगास्नान करने वाले को ढक लिया था, बाद में दीमक के वल्मीक (दह) से ये बाहर एक करोड़ सूर्यग्रहणों के बराबर पुण्य होता है । यदि उप- . निकले, तबसे इनका नाम वाल्मीकि हो गया। इनका युक्त योगों के अतिरिक्त उस दिन शनिवार भी हो तो यह आश्रम तमसा नदी के तट पर था। (भागवत) महावारुणी कहलाती है । यदि इन सबके अतिरिक्त शुभ एक दिन महर्षि ने प्रातःकाल तमसा के तट पर एक नामक योग भी आ जाय तो फिर यह 'महामहावारुणी' व्याध के द्वारा क्रौञ्च पक्षी का वध करने पर करुणार्द्र हो कहलाती है।
उसे शाप दिया। शाप का शब्द अनुष्टप् छन्द में बन गया वारुणी उपनिषद्-तैत्तिरीयोपनिषद् के तीन भाग हैं ।
था। इसी अनुष्टुप् छन्द में मुनि ने नारद से सुनी राम पहला संहितोपनिषद् या शिक्षावल्ली है, दूसरे भाग को
की कथा के आधार पर रामायण की रचना कर डाली । आनन्दवल्ली और तीसरे को भृगुवल्ली कहते हैं। इन
उसे लव-कुश को पढ़ाया। लव-कुश ने उसे राम की राजसभा दोनों वल्लियों का संयुक्त नाम वारुणी उपनिषद् है।
में गाया। इस पर वाल्मीकि प्रथम कवि तथा रामायण वार्षगण्य-प्रथम अथवा द्वितीय शताब्दी वि० में उत्पन्न,
प्रथम महाकाव्य प्रसिद्ध हुआ । वाल्मीकि की और भी अनेक सांख्य दर्शन के एक आचार्य । ये प्रसिद्ध दार्शनिक थे । इनका
रचनाएँ हैं किन्तु रामायण अकेले ही उन्हें सर्वदा के लिए रचा 'षष्टितन्त्र' सांख्य विषयक मौलिक रचना है ।
अमरत्व दे गयी है। वालखिल्य-(१) ऋग्वेद के समस्त सूक्तों की संख्या १०२८
(२) ये पुराणवणित वाल्मीकि त्रेतायुग में हुए थे और है । इनमें से ११ सूक्तों पर, जिन्हें 'वालखिल्य' कहते हैं, न प्राचेतस् वाल्मीकि से भिन्न प्रतीत होते हैं। परम्परागत तो सायणाचार्य का भाष्य है और न शौनक ऋषि की
कथनानुसार इनका प्रारम्भिक जीवन निकृष्ट था । कहते हैं अनुक्रमणी में इनका उल्लेख पाया जाता है। प्रत्येक सूक्त कि ये रत्नाकर नामक दस्यु थे तथा जंगल में पथिकों में किसी दिव्य ईश्वरीय विभूति की स्तुति है और उस का बध कर उनका धन छीन लेते और अपने परिवार स्तुति के साथ-साथ व्याजरूप से सृष्टि के अनेक रहस्यों का भरण-पोषण किया करते थे। एक दिन उसी मार्ग से तथा तत्त्वों का उद्घाटन किया गया है।
महर्षि नारद का आगमन हुआ। वाल्मीकि ने उनके साथ (२) देवगणों का एक ऐसा वर्ग जो आकार में भी वैसा ही व्यवहार करना चाहा। महर्षि ने उन्हें मना अँगूठे के बराबर होते हैं। इनकी उत्पत्ति ब्रह्मा के शरीर किया तथा कहा कि इन पापों के भागीदार तुम्हारे मातासे हुई है। इनकी संख्या साठ हजार है और ये सूर्य के रथ पिता, स्त्री या बच्चे होंगे या नहीं, जिनके लिए तुम यह के आगे-आगे चलते हैं।
सब करते हो। वाल्मीकि को विश्वास न हुआ और वे वालखिल्यशाखा-यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता में १९९० नारद को एक वृक्ष के साथ बाँधकर अपने घर उपर्युक्त मन्त्र है । वालखिल्य शाखा का भी यही परिमाण है । इन जिज्ञासा का उत्तर प्राप्त करने गये । किन्तु घर का कोई भी दोनों से चार गुना अधिक इनके बाह्मणों का परिमाण है : सदस्य उनके पापों का भागीदार होना न चाहता था। वे द्वे सहस्र शतन्यूनं मन्त्रा वाजसनेयके ।
वन में लौट आये, नारदजी को मुक्त कर उनके चरणों में तावत्त्वन्येन संख्यातं वालखिल्यं सशुक्रियम् ।
गिर गये और उनके उपदेश से अन्न-जल त्यागकर तपस्या ब्राह्मणस्य समाख्यातं प्रोक्तमानाच्चतुर्गुणम् ।। में निरत हुए। उनके शरीर पर दीमकों ने घर बना लिया। वाल्मोकि-(१) महर्षि कश्यप और अदिति के नवम पुत्र दीमकों से बनाये टीले को 'वल्मीक' कहते हैं । उससे वरुण (आदित्य) से इनका जन्म हुआ। इनकी माता चर्षणी निकलने के कारण इनका नाम वाल्मीकि प्रसिद्ध हो गया।
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