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वाकोवाक्य (संवाद)-वाजसन
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सब वाक्यों से कही जाती है। चाहे माक्षात्, चाहे ऐसे अर्थ वाचस्पति मिश्र ने वेदान्तसूत्र के शांकरभा'य पर वाले दूसरे वाक्यों के सम्बन्ध द्वारा । नैयायिकों के मत से भामती, सुरेश्वरकृत ब्रह्मसिद्धि पर ब्रह्मतत्त्वसमीक्षा, कई पदों के सम्बन्ध से निकलने वाला अर्थ ही वाक्यार्थ सांख्यकारिका पर तत्त्वकौमुदी, पातञ्जल दर्शन पर है। परन्तु वाक्य में जो पद होते हैं, वाक्यार्थ के मूल तत्त्ववैशारदी, न्यायदर्शन पर न्यायवार्तिकतात्पर्य, पूर्वकारण वे ही हैं। न्यायमञ्जरी में पदों में दो प्रकार को मीमांसा पर न्यायसूचीनिबन्ध, भाट्ट मत पर तत्त्वबिन्दु शक्ति मानी गयी है; अभिधा शक्ति, जिससे एक-एक पद तथा मण्डन मिश्र के विधिविवेक पर न्यायकणिका अपने-अपने अर्थ का बोध कराता है और दूसरी तात्पर्य
नामक टीकाओं की रचना की। इनके अतिरिक्त खण्डनशक्ति, जिससे कई पदों के सम्बन्ध का अर्थ सूचित होता कुठार तथा स्मृतिसंग्रह नामक पुस्तकों के रचयिता का है। धार्मिक विधियों का अर्थ अथवा तात्पर्य निकालने में नाम भी वाचस्पति मिश्र ही मिलता है। परन्तु यह कहना इस सिद्धान्त से बहुत सहायता मिलती है।
कठिन है कि इन दोनों के लेखक भी ये ही थे या कोई वाकोवाक्य (संवाद)-वैदिक ग्रन्थों के कुछ विशेष कथनोपकथन अंशों को ब्राह्मणों में दिया हुआ नाम । एक स्थान वाचस्पति मिथ ने यों तो छहों दर्शनों की टीकाएँ में (शत० ब्रा० ४. ६.९२०) ब्रह्मोद्य को वाकोवाक्य लिखी हैं और उनमें उनके सिद्धान्तों का निष्पक्ष भाव से कहा गया है। कुछ विद्वान् वाकोवाक्य से 'इतिहास-पुराण' समर्थन किया है, तो भी इनका प्रधान लक्ष्य शाङ्कर के किसी आवश्यक भाग का प्रकट होना बतलाते हैं । सिद्धान्त ही है। इनके ग्रन्थों में पर्याप्त मौलिकता पायी छान्दोग्य उपनिषद् में यह स्पष्ट ही तर्कशास्त्र के अर्थ जाती है । शाङ्कर सिद्धान्त के प्रचार में इनका बहुत बड़ा में प्रयुक्त हुआ है।
हाथ रहा है, इनकी भामती टीका अद्वैतवाद का प्रामाणिक वाक्-वैदिक देवमण्डल में वाक् का बड़ा महत्त्व है। यह ग्रन्थ है। ये केवल विद्वान् ही नहीं थे, उच्च कोटि के एक भावात्मक देवता है। शत० ब्रा० (४.१. ३. १६) साधक भी थे। इन्होंने अपना प्रत्येक ग्रन्थ भगवान् को में इसको चार भागों में बांटा गया है-मानवों की, ही समर्पित किया है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि पशुओं को, पक्षियों (वयांसि) तथा छोटे रेंगने वाले कीड़ों सुरेश्वराचार्य ने ही वाचस्पति मिश्र के रूप में पुन: जन्म की (क्षुद्रं सरीसृपम्)। इन्द्र को वाक् या ध्वनियों का लिया था। अन्तर समझने वाला कहा गया है। तुणव, वीणा तथा वाजपेय-एक श्रौतयज्ञ, जो शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दुन्दुभि बाजों की ध्वनियों का भी वर्णन पाया जाता है । केवल ब्राह्मण या क्षत्रियों द्वारा ही करणीय है। यह यज्ञ कुरु-पंचालों की वाक् शक्ति को विशेष स्थान प्राप्त था। राजसूय से श्रेष्ठ है । अन्य ग्रन्थों के मत से यह पुरोहित कौषो० ब्रा० में उत्तरदेशीय वाक् की विशेषता का वर्णन के लिए बृहस्पति सत्र का एवं राजा के लिए राजसूय का है । इसीलिए लोग वहाँ भाषा का अध्ययन करने जाते पूर्वकृत्य है । इसका एक आवश्यक अंग रथों की दौड़ है थे । दूसरी ओर वाक् की बर्बरता को त्यागने का निर्देश जिसमें यज्ञकर्ता विजयी होता है। हिलब्रण्ट ने इसकी हुआ है । वाक् का एह-एक विभाग दैवी एवं मानुषी था। तुलना ओलेम्पिक खेलों के साथ की है, किन्तु इसके ब्राह्मण को दोनों का ज्ञाता कहा गया है। आर्य तथा लिए प्रमाणों का अभाव है। यह यज्ञ प्रारम्भिक रथदौड़ ब्राह्मण बाक का भी उल्लेख हुआ है, जिससे अनार्य भाषाओं से ही विकसित हुआ जान पड़ता है, जो यज्ञ के रूप मे के विरुद्ध संस्कृत का बोध होता है।
दिव्य शक्ति की सहायता से यज्ञकर्ता को सफलता प्रदान वाचस्पति मिश्र-अद्वैताकाश के एक देदोप्यमान नक्षत्र, जो करता है । एगेलिंग का कथन ठीक जान पड़ता है कि यह भामतीकार नाम से भी विख्यात है। मिथिला में नवीं
यज्ञ ब्राह्मण द्वारा पुरोहित पद ग्रहण करने का पूर्वसंस्कार शती में इनका जन्म हुआ। बाद के सभी आचार्यों ने इनके था तथा राजाओं के लिए राज्याभिषेक का पूर्वसंस्कार । वाक्य प्रमाण रूप में ग्रहण किये हैं। शाङ्कर भाष्य पर वाजसन-याज्ञवल्क्य के पिता। इन्हीं के नाम पर याज्ञरची इनकी 'भामती' टीका अद्वैतमत को समझने का वल्क्य द्वारा संकलित शुक्ल यजुर्वेद का नाम वाजसनेयी अनिवार्य साधन है।
संहिता पड़ा।
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