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वसन्तोत्सव वसिष्ठ
वसन्तोत्सव - वसन्त ऋतु का उत्सव वसन्तोत्सव नाम से प्रचलित है। इसके बारे में वायुपुराण (६.१०-२१) में बड़ा रोचक तथा विशद वर्णन मिलता है। मालविकाग्निमित्र तथा रत्नावली नामक नाटकों की प्रस्तावना में बतलाया गया है कि ये दोनों नाटक वसन्तोत्सव के उपलक्ष्य में अभिनीत हुए थे। मालविकाग्निमित्र के तीसरे अजू में बतलाया गया है कि लाल अशोक के फूलों की सौगात लोगों ने अपने प्रिय जनों के पास भेजी थी तथा उच्च घराने की महिलाएँ अपने पतियों के साथ झूले में बैठा करती थीं। निर्णयसिन्धु इसे चैत्र कृष्ण प्रतिपदा ( पूर्णिमा की गणना करते हुए) को बतलाता है जबकि पुरुषार्थ चिन्तामणि इसे माप शुक्ल पञ्चमी ( निर्णयामृत का अनुसरण करते हुए) को बतलाता है। पारिजातमंजरी नाटिका, प्रथम अङ्क के अनुसार चैत्र की परिवा को वसन्तोत्सव होता है ।
दसव - वीर व सम्प्रदाय के संस्थापक बसव थे, ऐसा कुछ इतिहास के विद्वान् मानते हैं । वसव चालुक्य राजा बिज्जल के प्रधान मंत्री थे । किन्तु फ्लीट के मतानुसार अब्लुर के एकान्तद रामाय्य, जिनका जीवनचरित्र एक प्रारम्भिक आलेख में प्राप्त है, इस सम्प्रदाय के संस्थापक थे । वसव को इसका पुनरुद्धारक कह सकते हैं। वसवपुराण - तेलुगु में छन्दोबद्ध रूप में रचित १३वीं शताब्दी का यह ग्रन्थ वीर शैव सम्प्रदाय का निरूपण करता है । इसके रचयिता पालकुर्की के सोमनाथ है। इसका कन्नड अनुवाद भीमचन्द्र कवि द्वारा हुआ है। वसवशाखा - वसव की परम्परा के लिङ्गायत सुधारवादी वर्ग के माने जाते हैं । इसका आरम्भ वसव से समझा जाता है और आधार वसवेश्वर पुराण है । इस पुराण में लिखा है कि जब भूमण्डल पर वीर शैवमत का ह्रास हो रहा था, देवर्षि नारद की प्रार्थना पर परमेश्वर ने अपने गण नन्दी को उसके उद्धार के लिए भेजा । नन्दीश्वर ने बागेवाड़ी में जन्म लिया और उनका नाम 'वराव' रखा गया। कन्नड में वसव शब्द वही है जो हिन्दी में 'बसह' और संस्कृत में वृषभ है। वसवेश्वर ने यज्ञोपवीत नहीं धारण किया, क्योंकि उन्हें सूर्य की कार न थी । वे बागेवाड़ी से कल्याण आये नामक राजा था और वसवेश्वर के मामा मन्त्री थे। बलदेव की मृत्यु के बाद वसवेश्वर मन्त्री हो
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गये । वसवेश्वर वीरशैवों के पक्षपाती थे। उन्होंने उन पर बहुत कुछ राजस्व व्यय किया, जिससे राजा रुष्ट हो गया । उसने उन्हें कैद करना चाहा। राजा और मन्त्री युद्ध छिड़ गया। राजा हार गया और सन्धि हुई । राजा मन्त्री फिर यथावत् स्थित हुए
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तदनन्तर वसव ने वर्णान्तर विवाह का प्रचार किया । चमार और ब्राह्मण में विवाह सम्बन्ध कराया। इस पर राजा ने हरलइया चमार और मधुवइया ब्राह्मण की आँखें निकलवा लीं। इससे वसव का उद्देश्य सफल न हुआ । इस पर रुष्ट होकर वसवेश्वर ने षड़यन्त्र रचा और राजा का वध करवा दिया ।
कुछ लोगों का अनुमान है कि लिङ्गायतों के मूलाचार्य 'वसवेश्वर थे। यह कथन अनेक कारणों से भ्रमपूर्ण है। पहले तो 'बसवपुराण' जो मूलतः तेलुगु और फिर कन्नड में लिखा गया, अब से सात सौ वर्ष से अधिक पुराना ग्रन्थ नहीं हो सकता । इसे बादरायण व्यास की रचना कहना तो अशक्य है । इसी में वीरशैव मत का प्राचीन होना और उसके ह्रास की अवस्था स्वीकार की गयी है । वसव को वीरशैवों का पक्षधर कहा गया है । डा० फ्लीट का कहना है कि बसव नहीं, बल्कि एकान्तद रामाथ्य वीरशय मत के प्रवर्तक थे ।
बसवेश्वर ने लिङ्ग धारण करने की विशेषता स्थिर रखी, परन्तु वीरशैवों के अनेक मन्तव्यों के विपरीत मत चलाया। उन्होंने वर्णाश्रम धर्म का खण्डन किया, ब्राह्मणों का महत्त्व अस्वीकार किया, वेदों को नहीं माना, भगवान् शिव के सिवा किसी देवी-देवता को मानना अस्वीकार किया, जन्मान्तर को असिद्ध ठहराया, प्रायश्चित्त और तीर्थयात्रा को व्यर्थ बताया, सगोत्र विवाह को विहित बताया अन्त्येष्टि क्रिया को अनावश्यक और शौचाशौच के विचार को भ्रमात्मक ठहराया, विधवा विवाह प्रचलित किया। इनके अनुयायी भी अपने को वीर शैव और लिङ्गायत कहते हैं । परन्तु आचार-विचार में इतना अधिक भेद होने से प्राचीन वीरशैव वा पाशुपत शैवों में और
पन्थी लिङ्गायतों में पार्थस्य सहज में हो सकता है। बसवेश्वर सम्प्रदाय यह एक सुधारक वीरशैव सम्प्रदाय है । दे० 'वसव शाखा' । वसिष्ठवैदिक परम्परा में सबसे बड़े ऋषि-पुरोहितों में वसिष्ठ माने गये हैं। ऋग्वेद का सातवा मण्डल इनके
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