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वसिष्ठधर्मसूत्र-वाक्यार्थ
द्वारा संकलित कहा जाता है, क्योंकि इस मण्डल में वसिष्ठ वसिष्ठसंहिता-यह एक शाक्त ग्रन्थ है। वसिष्ठसंहिता एवं उनके वंशजों का उल्लेख प्रायः हुआ है, यद्यपि इसके अथवा महासंहिता में शान्ति, जप, होम, बलि, दान बाहर भो छिटफुट इनका नामोल्लेख पाया जाता है। आदि पर ४५ अध्याय हैं । इसमें नक्षत्र, वार आदि ज्योवसिष्ठ से एक निश्चित व्यक्ति का ही बोध हो, ऐसा तिष-विषयक प्रश्नों पर भी विचार किया गया है। दे० संभव प्रतीत नहीं होता । फिर भी यह अस्वीकार करना ___अलवर कैटेलोंग एक्सट्रैक्ट, ५८२ ।। आवश्यक नहीं कि एक ऐतिहासिक वसिष्ठ थे, क्योंकि
क्याकि वसुगुप्त--काश्मीर शैव सिद्धान्त के एक प्रवर्तक आचार्य । एक ऋचा (ऋ. ७.१८.७) में उनकी रचना का स्पष्ट
इन्होंने ९०७ वि० के लगभग शिवसूत्रों की रचना की बांध होता है तथा उनके द्वारा दस राजाओं के विरुद्ध
जिनका उद्देश्य आगमों की द्वैतवादी (लगभग) शिक्षाओं सुदास की सहायता करना प्रकट होता है। वसिष्ठ के
के स्थान पर अद्वैत दर्शन को स्थान दिलाना था। कहना जीवन की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना उनकी विश्वामित्र से
न होगा कि उस समय काश्मीर शैव सिद्धान्त पर द्वैतवादी प्रतिद्वन्द्विता थी। विश्वामित्र निश्चित रूप से एक समय आगमों का ही प्रभाव था। कहते हैं कि शिवसूत्रों का सुदास के पुरोहित थे (ऋ० ३.३३.५३)। किन्तु उन्हें
ज्ञान वसुगुप्त को भगवान् शंकर से प्राप्त हुआ था। वसुउस पद से च्युत होना पड़ा और उन्होंने सुदास के विरो- गुप्त से कल्लटाचार्य ने और कल्लट से भास्कराचार्य ने धियों का पक्ष ग्रहण कर सुदास के अनेक मित्र राजाओं का इस दार्शनिक तत्त्व को ज्ञात किया । नाश कराया । ऋग्वेद में इन दोनों ऋषियों के संघर्ष का वसुदेव-कृष्ण के पिता। ये यादवों की वृष्णि शाखा के अन्तविवरण नहीं मिलता। वसिष्ठ के पुत्र शक्ति तथा विश्वा- गत थे । इनको कंस की बहिन देवकी ब्याही थी। कंस ने मित्र की शत्रुता का प्रमाण यहाँ प्राप्त है, जबकि विश्वा- शत्रुतावश इन दोनों को कारागार में डाल रखा था। मित्र ने भाषण में विशेष पटुता प्राप्त की तथा सुदास के वहीं कृष्ण का अवतार हुआ। वसुदेव के पुत्र होने के सेवकों द्वारा शक्ति की हत्या करायी (शाट्यायनक ७.३२ कारण ही कृष्ण वासुदेव कहलाते हैं । पर अनुक्रमणी की टिप्पणी द्रष्टव्य)। इस घटना का वसुव्रत-(१) चैत्र शुक्ल अष्टमी को इस व्रत का अनुष्ठान संक्षिप्त उल्लेख तैत्तिरीय संहिता में पाया जाता है। पञ्च- होना चाहिए । आठ वसुओं की. (ये वास्तव में भगवान् विश ब्राह्मण में भी वसिष्ठ के पुत्र के मारे जाने तथा वासुदेव के ही रूप है) एक वृत्त में आकृतियाँ खींचकर या सौदासों पर विश्वामित्र की विजय का उलख है । सुदास उनकी प्रतिमाएँ बनाकर इस दिन उपवास करते हुए के न रहने पर विश्वामित्र ने पुनः अपना पद प्राप्त कर इनका पूजन करना चाहिए। व्रत के अन्त में एक गौ का लिया तथा वसिष्ठ ने अपने पुत्रवध के बदले सौदासों को दान विहित है। इससे धन-धान्य की प्राप्ति के साथ वसुकिसी युद्ध में पराजित कराया ।
लोक की प्राप्ति होती है। आठ वसु ये हैं-धर, ध्रुव,
सोम, आपः, अनिल, अनल, प्रत्यूष तथा प्रभाष । इसके वैदिक साहित्य के ऋषि के रूप में वसिष्ठ के अनेक
लिए दे० अनुशासन पर्व (१५.१६-१७)। उद्धरण सूत्रों, महाभारत, रामायण आदि में प्राप्त होते हैं
(२) प्रभूत सुवर्ण के साथ एक गौ का, जबकि वह ब्याने जहाँ वसिष्ठ तथा विश्वामित्र संघर्ष करते हए वणित है ।
के योग्य हो, दान करना चाहिए तथा उस दिन केवल इन वैदिक आख्यानों की श्रृंखला में पुराणों में वसिष्ठ की
दुग्धाहार करना चाहिए। इस व्रत के आचरण से व्रती अनेक कथाएँ णित हैं ।
परम पद मोक्ष प्राप्त करता है तथा फिर उसे इस संसार वसिष्ठधर्मसूत्र-एक प्रसिद्ध धर्मसूत्र, जो मुख्यतः ऋग्वेदीय में जन्म नहीं लेना पड़ता। हेमाद्रि (२.८८५) के अनुसार संप्रदाय द्वारा अधीत होता है, किन्तु अन्य वैदिक शाखानु- गर्भजननी अवस्था वाली गौ का दान महत्त्वपूर्ण होता है यायी भी इसे प्रयोग में लाते हैं । ऋग्वेदीय कल्प के श्रोत- (उसे उभयतोमुखी कहा जाता है)। सूत्र और गृह्यसूत्र उपलब्ध नहीं है। किन्तु वे अवश्य रहे वाक्यार्थ-वाक्य का अर्थ क्या है, इस विषय में बहुत मतहोंगे । यह अन्य धर्मसूत्रों से विषय और शैली दोनों में भेद है। मीमांसकों के मत में नियोग अथवा प्रेरणा ही मिलता-जुलता है।
वाक्यार्थ है-अर्थात् 'ऐसा करो', 'ऐसा न करो' यही बात
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