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वर्णविलासतन्त्र-वर्णाश्रमधर्म
है और इसका पूरा विवरण धर्मशास्त्र में पाया जाता है। है। इससे विचित्र वृत्तिसंकर की स्थिति उत्पन्न हो गयी ब्राह्मण के कर्तव्य है (१) पठन (२) पाठन (३) यजन है। कार्य विशेष के लिए अयोग्यता और भ्रष्टाचार का (४) याजन (५) दान और (६) प्रतिग्रह । इनमें पाठन, अधिकांश में यही कारण है। याजन और प्रतिग्रह ब्राह्मण के विशेष कार्य हैं । क्षत्रिय के वर्णविलासतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की तन्त्रसूची में सामान्य कर्तव्य है पठन, यजन और दान; उसके विशेष एक तन्त्र 'वर्णविलास' भी है। कर्तव्य है प्रजारक्षण, प्रजापालन और प्रजारंजन । वैश्य वर्णव्यवस्था-मानवसमूह की आवश्यकताओं को देखते के सामान्य कर्त्तव्य वे ही हैं जो क्षत्रिय के हैं । उसके विशेष हुए उसके चार विभाजन हुए। सबसे बड़ी आवश्यकता कर्तव्य हैं कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य । शूद्र के भी शिक्षा की थी, इसके लिए ब्राह्मण वर्ण बना । राष्ट्र की सामान्य कर्त्तव्य वे ही हैं जो अन्य वर्गों के, परन्तु उनका रक्षा, प्रजा की रक्षा दूसरी आवश्यकता थी। इस काम अनुष्ठान वह वैदिक मंत्रों की सहायता के बिना कर सकता में कुशल, बाहुबल को विवेक से काम में लाने वाले क्षत्रिय था। पीछे इस पर भी प्रतिबन्ध लगने लगे । उसका विशेष वर्ण की उत्पत्ति हुई। शिक्षा और रक्षा से भी अधिक कर्तव्य अन्य तीन वर्गों की सेवा है । कर्तव्यों में अपवाद आवश्यक वस्तु थी जीविका । अन्न के बिना प्राणी जी और आपद्धर्म स्वीकार किये गये हैं। आपत्काल में नहीं सकता था, पशुओं के बिना खेती नहीं हो सकती अपने से अवर वर्ण के कर्तव्यों से जीविका चलायी जा थी। वस्तुओं की अदलाबदली बिना सबको सब चीजें मिल सकती है। परन्तु उसमें कुछ प्रतिबन्ध लगाये गये हैं, नहीं सकती थीं। चारों वर्गों को अन्न, दूध, घी, कपड़ेजिससे मूल वृत्ति की रक्षा हो सके।
लत्ते आदि सभी वस्तुएँ चाहिएं । इन वस्तुओं का उपजाना, वर्ण के उत्कर्ष और अपकर्ष का सिद्धान्त भी धर्म- तैयार करना, फिर जिसकी जिसे जरूरत हो उसके पास शास्त्रों में माना गया है। जब वर्ण तरलावस्था में था तो पहुँचाना, यह सारा काम प्रजा के एक सबसे बड़े समुदाय शूद्र से ब्राह्मण और ब्राह्मण से शूद्र होना दोनों संभव के सिर पर रखा गया । इसके लिए वैश्यों का वर्ण बना। थे । परन्तु वर्ण ज्यों-ज्यों जन्मगत होता गया त्यों-त्यों किसान, व्यापारी, ग्वाले, कारीगर, दूकानदार, बनजारे ये वर्णपरिवर्तन कठिन होता गया और अन्त में बन्द हो। सभी वैश्य हुए । शिक्षक को, रक्षक को, वैश्य को, छोटेगया। फिर भी सिद्धान्ततः आज भी मान्य है कि सत्कर्मों मोटे कामों में सहायक और सेवक की आवश्यकता थी । से जन्मान्तर में वर्ण का उत्कर्ष हो सकता है।
धावक व हरकारे की, हरवाहे की, पालकी ढोनेवाले की, ___ मध्ययुग में, विशेष कर दक्षिण में, एक विचित्र सिद्धान्त पशु चरानेवाले की, लकड़ी काटने वाले की, पानी भरने, का प्रचलन हो गया कि कलियुग में दो ही वर्ण हैं-(१)
बरतन माजने वाले की, कपड़े धोनेवाले की आवश्यकता ब्राह्मण और (२) शद्र (कलावाद्यन्तसंस्थितिः); क्षत्रिय
थी। ये आवश्यकताएँ शूद्रों ने पूरी की। इस प्रकार और वैश्य नहीं हैं । ऐसा जान पड़ता है कि वैदिक कर्म
प्रजासमुदाय को सभी आवश्यकताएँ प्रजा में पारस्परिक काण्ड और संस्कारों के बन्द हो जाने कारण वैश्यों और कमविभाग से पूरी हुई । दे० 'वर्ण' । क्षत्रियों की कई जातियाँ शद्रवर्ण में परिगणित होने वर्णव्रत-यह चतुमूर्तिव्रत है, जो चैत्र से प्रारम्भ होकर लगीं। धीरे-धीरे दक्षिण में दो ही वर्ण ब्राह्मण और आषाढ़ मास से भी आगे जारी रहता है। जो व्रती उपब्राह्मणेतर माने जाने लगे। परन्तु उत्कीर्ण अभिलेखों ___ वास रखते हुए भगवान् वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न तथा तथा समसामयिक साहित्य से पता लगता है कि व्यवहार अनिरुद्ध की पूजा कर क्रमशः यज्ञोपयोगी सामग्री ब्राह्मण में क्षत्रिय और वैश्य वर्ण अपने को क्षत्रिय और वैश्य को, युद्धोपयोगी क्षत्रिय को, व्यापारोपयोगी वैश्य को तथा ही मानते रहे और समाज ने उनकी इस मान्यता को स्वी- शारीरिक शिल्पोपयोगी शूद्र को दान करता है वह इन्द्रकार भी किया।
लोक प्राप्त करता है। ___ आधुनिक युग में वर्णगत व्यवसायों के सम्बन्ध में विज्ञान वर्णाश्रमधर्म-वर्णव्यवस्था का आधार कर्मविभाग
और तकनीकी विज्ञान के कारण क्रान्तिकारी परिवर्तन था, उसी प्रकार व्यक्ति की जीवनव्यवस्था का रूप हआ है। वर्ण और व्यवसाय का सामंजस्य टूट सा चला आश्रमविभाग था। जीवन की पहली अवस्था में अच्छ
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