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मिलते हैं - (१) गौडीय और (२) दाक्षिणात्य । इनमें प्रथम अधिक प्रसिद्ध है। इस पुराण में विष्णु के अनेक व्रतों का विस्तृत वर्णन है, विशेषकर द्वादशीव्रत का । प्रत्येक मास की शुक्ल द्वादशी का सम्बन्ध विष्णु के अव तारविशेष से जोड़ा गया है। इस पुराण के दो आख्यान बहुत प्रसिद्ध हैं -- मथुरामाहात्म्य (अ० १५२-१७२) तथा नाचिकेतोपाख्यान ( अ० १९३ - २१२ ) । दूसरे आख्यान में नचिकेता की यमलोकयात्रा के सम्बन्ध में स्वर्ग तथा नरक का विस्तृत वर्णन पाया जाता है । वराहमिहिर खगोलीय गणित और फलित ज्योतिष के प्राचीन लेखक वराहमिहिर नाम से ही ये मिहिर (सूर्य) के भक्त सिद्ध होते हैं । इन्होंने पञ्चसिद्धान्तिका, बृहज्जातक आदि के साथ ही प्रसिद्ध ग्रन्थ बृहत्संहिता की रचना की । इसके अनुसार सूर्य की प्रतिमा ईरानी शैली में निर्मित होती थी। इन्होंने इन मूर्तियों तथा इनके मन्दिरों की स्थापना तथा मग ब्राह्मणों द्वारा प्राणप्रतिष्ठा करने आदि के नियम बतलाये है। इनका समय पांचवीं छठी शती का मध्य भाग इन्हीं की ग्रहगणना से सिद्ध होता है । इससे इनका विक्रमादित्य के नवरत्नों में होना प्रमाणित नहीं होता। वराहसंहिता वैष्णव संहिताओं में वराहसंहिता सबसे प्राचीन मानी जाती है।
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वराहावतार विष्णु के दस अवतारों में तृतीय स्थान वराहावतार का है । भगवान् ने पाताल लोक से पृथ्वी के उद्धार के लिए यह अवतार धारण किया था। इस अवतार के प्रसंग में भागवत पुराण के अनुसार जय और विजय नामक भगवान् के द्वारपाल सनत्कुमारादि ऋषियों के शाप के कारण विष्णुलोक से च्युत होकर दैत्य योनि में उत्पन्न हुए। उनमें से एक का नाम हिरण्याक्ष था, जिसने पृथ्वी पर अधिकार प्राप्तकर उसे रसातल में छिपा रखा था । अतः भगवान् ने उसका वध करके पृथ्वी का उद्धार किया। यह कथानक इस अवतार से सम्बन्धित है । वरिवस्यारहस्य दक्षिणमार्गी शाक्त ग्रन्थ अठारहवीं शताब्दी के प्रारम्भिक दशकों में तओर के राजपण्डित भास्करराय द्वारा यह रचा गया। इसका विषय शाक्त उसासना पद्धति है। यह आर्या छन्द में लिखा गया है। वरुण - वैदिक देवों में वरुण का स्थान सबसे अधिक प्रभावशाली है । इनका प्रभाव भारत-ईरानी काल में बढ़ गया
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वराहमिहिर वरुण
था तथा 'अहुरमज्द' वरुण का ही ईरानी प्रतिरूप प्रतीत होता है । कुछ लोग इनका प्रभाव भारत-यूरोपीय काल से मानते हैं तथा इनका सम्बन्ध यूनानी 'औरनॉज' से स्थापित करते हैं । कतिपय प्राच्यविद्याविशारद चन्द्रमा में वरुण का भौतिक आधार मानते हैं । वरुण आदित्यों में सात (वें) है तथा प्रो० ओल्डेनबर्ग ने उनको सूर्य, चन्द्र तथा पञ्चग्रहरूप बतलाया है। ऋग्वेद में वरुण का मित्र से उतना ही सामीप्य है जितना अवेस्ता में 'अहुर मज्द' का 'मित्र' से दोनों नाम वरुण एवं मित्र बोगाजकोई (ईराक) के अभिलेख में उद्धृत हैं (१४००
ई० पू.)
प्रागैतिहासिक काल में यूनानी जियस ( द्यौस्) तथा औरनोज के जो गुण प्रकाश तथा घेरना कहे गये हैं, वे भारतीय वरुण देवता में पाये जाते हैं । साधारण लोग वरुण का सम्बन्ध जल से स्थापित करते हैं तथा इस प्रकार वरुण को वर्षा करने वाला देवता भी कहते हैं । मित्र और वरुण का युग्म (वैदिक मित्रावरुण) तो भारतईरानी काल से ही प्रचलित है । दे० पीछे 'मित्र' ।
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वरुण और नीति — ऋग्वेद (८.८६) में वरुण द्वारा की गयी ऋत की व्यवस्था का वर्णन है। यह व्यवस्था भौतिक, नैतिक और कर्मकाण्डीय हैं । वरुण पापों की चेतावनी तथा दण्ड देने के लिए रोग भी उत्पन्न कर देते हैं। वरुण की स्तुति पाप तथा दण्डों से मुक्ति पाने के लिए (ऋ० ७. ८६. ५ आदि) की जाती थी। वरुण को दयालु देवता और जीवन तथा मृत्यु का देवता भी कहा गया है ।
वरुण की मैत्री तथा दया प्राप्त करने के लिए दास्यभक्ति की आवश्यकता होती है (ऋ० ७. ८६. ७) तथा इससे वरुण के कोपभाजन उनके कृपापात्र हो जाते हैं । उनके नियमों के सामने निर्दोष व्यक्ति प्रसन्नचित्त खड़े रहते हैं । वरुण की इच्छा ही धर्मविधि है । वरुण के धर्म परिवर्तित नहीं होते। उनका एक चारित्रिक विरुव धृतव्रत है (जिनके व्रत दृढ हैं) ।
वरुण का साम्राज्य पक्षियों की उड़ान से भी दूर, समुद्र तथा पहाड़ों की पहुँच के बाहर तक फैला हुआ है। सबसे ऊँचे आकाश (स्वर्ग) में वे सहस्र द्वारों वाले प्रासाद में सिंहासनारूढ हैं, विश्व पर शासन करते हैं तथा मनुष्यों के कार्यों पर दृष्टि रखते हैं स्वर्ग भी उन्हें धारण नहीं
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