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वरदनायकसूरि-वराहपुराण
५७३ वरदनायक सूरि-ये आचार्य वरदगुरु के पश्चात् उत्पन्न नामक एक व्याकरण ग्रन्थ के रचयिता भी कहे जाते हैं । हुए थे। क्योंकि इन्होंने 'चिदचिदोश्वरतत्त्वनिरूपण' महाभाष्य के पहले पाणिनीय सूत्रों पर कात्यायन मुनि नामक अपने ग्रन्थ में वरदगुरु के 'तत्त्वत्रयचुलुक' का ने वार्तिक लिखे हैं । इन्होंने अपने वार्तिक में पाणिनि के उल्लेख किया है । सम्भवतः ये १६वीं शती में हुए थे। अनेक सूत्रों की स्वतंत्र समालोचना की है । इसका विशेष वरदनायक ने अपने ग्रन्थ में जीव, जगत् और ईश्वर के उद्देश्य यही है कि सूत्रों का अर्थ और तात्पर्य खुल जाय । सम्बन्ध पर विचार किया है। इनका विचार भी रामानुज ये वार्तिककार कात्यायन ही वररुचि थे। कथासरित्सागर स्वामी के विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त से मिलता-जुलता है। में लिखा है कि पार्वती के शाप से वत्सराज उदयन की वरदराज-वरदराज विष्णुस्वामी मतावलम्बी थे। इन्होंने राजधानी कौशाम्बी में कात्यायन वररुचि का जन्म भागवत पुराण की एक टीका लिखी है । इसकी एक दो सौ हआ था। वर्ष पुरानी पाण्डुलिपि संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय वरलक्ष्मीव्रत-श्रावण पूर्णिमा के दिन जब शुक्र ग्रह पूर्व के पुस्तकालय में है। किन्तु इसकी परीक्षा नहीं हुई है। में उदय हो उस समय व्रती को अपने घर की उत्तर-पूर्व इनका समय अनिश्चित है।
दिशा में एक मण्डप बनाना चाहिए तथा उसमें कलश वरदा चतुर्थी--माघ शुक्ल चतुर्थी। गौरी इसको देवता की स्थापना करनी चाहिए। कलश पर वरलक्ष्मी का हैं । विशेष रूप से महिलाओं के लिए इस व्रत का महत्त्व आवाहन करके उनका 'श्रीसूक्त' के मन्त्रों से पूजन करना है । हेमाद्रि, १. ५३१ में इसका नाम गौरीचतुर्थी है जो चाहिए । दे० 'साम्राज्यलक्ष्मीपीठिका' का पृ० १४७सही प्रतीत होता है। निर्णयसिन्धु (पृ० १३३) के अनु- १४९ (भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टीच्यूट पूना, १९२५-२६ सार भाद्र शुक्ल पक्ष की चतुर्थी वरदा चतुर्थी है । पुरुषार्थ- का प्रतिलेख सं० ४३)। चिन्तामणि (पृ० ९५) के अनुसार मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी वराटिकासप्तमी-किसी भी सप्तमी के दिन इस व्रत का वरदा चतुर्थी है ।
अनुष्ठान किया जा सकता है। मनुष्य उस दिन ऐसे भोजन वरदाचायं-वरदार्य या वरदाचार्य रामानुजाचार्य के भानजे पर निर्भर रहे जो तीन कौड़ियों में खरीदा जा सके । उस
और शिष्य तथा 'श्रुतप्रकाशिका' टीकाकार सुदर्शनाचार्य खरीदी हुई वस्तु का खाना चाहे उसके लिए उचित हो के गरु थे । वे लगभग तेरहवीं शती विक्रमी में विद्यमान या न हो । इसके सूर्य देवता है। इसके पुण्य तथा फल थे । 'तत्त्वनिर्णय' ग्रन्थ में अपना गोत्र उन्होंने वात्स्य नहीं बताये गये हैं। और पिता का नाम देवराजाचार्य लिखा है । वरदाचार्य ने वराहद्वादशी-माघ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान 'तत्त्वनिर्णय' नामक प्रबन्ध में विष्णु को ही परब्रह्म सिद्ध होता है। भगवान् विष्णु के ही एक रूप वराह इसके किया है । यह ग्रन्थ सम्भवतः अप्रकाशित है ।
देवता हैं। एकादशी को संकल्प तथा पूजन करके एक वरदोत्तरतापनीय उपनिषद्-एक परवर्ती उपनिषद् । इसका कलश में सोने की वराह भगवान् की मूर्ति रख देनी सम्बन्ध गाणपत्य मत से है।
चाहिए। तदनन्तर उनकी पूजा कर रात्रि में मण्डप में बरनवमी-इस व्रत के अनुसार प्रत्येक नवमी को आटे का । जागरण किया जाय । द्वितीय दिवस वह प्रतिमा किसी
आहार नौ वर्षपर्यन्त करना चाहिए । दुर्गा इसको देवता विद्वान् तथा सदाचारी को दान में दे दी जाय। इसके हैं। इससे समस्त मनःकामनाएं पूरी होती हैं। यदि परिणामस्वरूप इसी जीवन में सौभाग्य, सम्पत्ति, सौन्दर्य, व्रती प्रति नवमी को बिना पका हुआ भोजन जीवनपर्यन्त
सम्मान, पुत्रादि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है । करे तो इहलोक तथा परलोक में अनन्त पुण्यों तथा
वराहपुराण-यह वैष्णव पुराण है । इसमें वराह अवतार फलों की प्राप्ति होती है।
की कथा का विशेष रूप से वर्णन है और यह वराह वररुचि-सामवेद का गोभिलकृत श्रौतसूत्र पुष्पसूत्र है । द्वारा पृथ्वी को सुनाया गया था। संभवतः नामकरण का इसे दाक्षिणात्यों में फुलुसूत्र कहते है और इसे वररुचि की
यही कारण हो सकता है । पुराणों के अनुसार इसमें २४ रचना बतलाते है । तैत्तिरीय प्रातिशाख्य पर वररुचि का सहस्र श्लोक होने चाहिए, किन्तु उपलब्ध प्रतियों में भाष्य था जो अब नहीं मिलता है। वररुचि प्राकृतप्रकाश केवल १० सहस्र श्लोक पाये जाते हैं। इसके दो संस्करण
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