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और तीक्ष्ण कोणों से युक्त होता है। इसके अनेक नाम हैं, यथा - अशनि, अभ्रोत्य, बहुदार, भिदिर या छिदक, दम्भोति, जसुरि, ह्रादिनी, कुलिंग, पवि षट्कोण, शम्भ एवं स्वरु ।
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(२) अनिरुद्ध का पुत्र उसकी माता अनिरुद्ध की पत्नी सुभद्रा अथवा दैत्यकुमारी उषा कही जाती है । यादवों के विनाश के पश्चात् और द्वारका के जलमग्न हो जाने पर वही अन्त में मथुरामण्डल का राजा बनाया गया था। वज्रसूची उपनिषद् - यह एक परवर्ती उपनिषद् है । कहा जाता है, यह किसी बौद्ध तार्किक (अश्वघोष ) की रची हुई है। वजुली (द्वादशी) कई प्रकार की द्वादशियों में से एक द्वादशी । वञ्जुली उस द्वादशी को कहते हैं जो सूर्योदय से आरम्भ होकर अगले सूर्योदय तक विद्यमान रहे तथा उस दिन भी थोड़ी देर रहे। अतएव यह सम्भव है कि द्वादशी को उपवास करके द्वादशी में ही दूसरे दिन व्रत की पारणा कर ली जाय । दूसरी तिथि में पारणा करने की आवश्यकता नहीं है । उस दिन भगवान् नारायण की सुवर्णप्रतिमा का पूजन किया जाय। इसका माहात्म्य तथा पुण्य सहस्र राजसूय यज्ञों से भी अधिक माना जाता है । वटसावित्रीवत पेष्ठ मास की अमावस्या को सधवा महि वाएँ सौभाग्य रक्षार्थ यह व्रत करती है। इसमें विविध प्रकार से वटवृक्ष का पूजन किया जाता है और पति के स्वास्थ्य तथा दीर्घायुष्य की कामना की जाती है । वत्स - कण्व के वंशज अथवा पुत्र वत्स का ऋद में गायक के रूप में उल्लेख हुआ है। पञ्चविशब्राह्मण के अनुसार उन्हें अपनी वंशशुद्धता मेधातिथि के सम्मुख प्रदर्शित करने के लिए अग्निपरीक्षा देनी पड़ी तथा उसमें वे सफल निकले। शाङ्खायन श्रौतसूत्र में उन्हें तिरिन्दर पारशव्य से प्रभूत दान पानेवाला कहा गया है । आपस्तम्ब श्रौतसूत्र में भी उनका उल्लेख है । वत्स एक उपगोत्र ( वत्स गोत्र ) के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। वत्सद्वादशी-कार्तिक कृष्ण द्वादशी । इस दिन बछड़े वाली गौ का चन्दन के लेप, माला, अर्ध्यसे उरद की दाल के बड़ों का नैवेद्य बनाकर सम्मान करना चाहिए। उस दिन व्रती तेल का पका हुआ अथवा कड़ाही में हुआ भोजन एवं गी के दूध, घी, दही तथा मक्खन का परि त्याग करे और बछड़ों को छुट्टा दूध पीने दिया जाय ।
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वज्रसूची उपनिषद्-वरयतापनीयोपनिषद् वत्सराधिपपूजा वर्ष के स्वामी का पूजन चैत्र मास में जिस दिन नया वर्ष प्रारम्भ होता हैं उस दिन का वार ही वर्ष का स्वामी होता है उसी दिन वर्ष के स्वामी का पूजन होना चाहिए ।
वन - शङ्कर के अनुयायी दसनामी संन्यासियों मेंसे वन भी एक वर्ग है। ये गोवर्धन मठ (जगन्नाथपुरी) के अन्तर्गत आते हैं। वरचतुर्थी - मार्गशीर्ष शुक्ल चतुर्थी । यह तिथिव्रत है । प्रति मास की चतुर्थी को गणेश का पूजन करना चाहिए। उस दिन क्षार तथा लवण का त्यागकर एकभक्त विधि से भोजन करना चाहिए। यह व्रत चार साल तक चलना चाहिए | किन्तु द्वितीय वर्ष नक्त विधि से, तृतीय वर्ष अयाचित विधि से तथा चतुर्थ वर्ष उपवास के साथ व्रत करने का विधान है ।
वरदगुरु — आचार्य वरदगुरु पन्द्रहवीं शती में हुए थे । वे वेंकटनाथ के पुत्र तथा नगनाराचार्य के शिष्य थे । उनका दूसरा नाम प्रतिवादिभयङ्करम् अस्नन था । तार्किक होने के कारण उनका यह नाम पड़ा । वरदगुरु ने वेंकटनाथ की प्रशंसा में 'सप्ततिरत्नमालिका' नामक काव्य की रचना की। नगनाराचार्य ने वेदान्ताचार्य के 'अधिकरणसारावली' नामक ग्रन्थ की टीका लिखी है। वरदगुरु वेङ्कटनाथ के अनन्य भक्त और नगनाराचार्य के उपयुक्त शिष्य एवं विशिष्टाद्वैत मत के समर्थक थे । उन्होंने 'तत्त्वत्रयचुलुकसंग्रह' नामक ग्रन्थ की रचना की जिसमें रामानुज स्वामी के सिद्धान्त की व्याख्या की गयी है। वरचतुर्थी गाथ शुक्ल चतुर्थी को इस व्रत का अनुष्ठान करना चाहिए। वरद (विनायक या गणपति) की चतुर्थी एवं पञ्चमीको कुन्दपुष्पों से पूजा करनी चाहिए, ऐसा 'समयप्रदीप' का लेख है । जबकि 'कृत्यरत्नाकर' और 'वर्षकृत्यकौमुदी' कहते हैं कि 'वरचतुर्थी' के दिन व्रतारम्भ करके पञ्चमी के दिन कुन्दपुष्पों से गणेश का पूजन करना चाहिए । यही पञ्चमी श्री पञ्चमी है । 'वर' का तात्पर्य है विनायक ।
वरदतापनीयोपनिषद् — इसका अन्य नाम गणपतितापनीयोपनिषद् भी है । यह गाणपत्य मत की उपनिषद् है । इसमें गणेश को ही परब्रह्म मानकर उनका एक मन्त्रराज लिखा गया है तथा उसकी व्याख्या नरसिंहतापनीयोपनिषद् के अनुकरण पर की गयी है। रचनाकाल की दृष्टि से इसको नवीं शताब्दी के बीच का माना जाता है।
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