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बड़ी कठिनाई है । कुछ विद्वानों द्वारा पुष्कर, वाराह तथा ब्राह्मसंहिताओं को सबसे प्राचीन माना जाता है । आर्यगर महोदय लक्ष्मीसंहिता को अति प्राचीन मानते हैं तथा पद्म को भी प्राचीन बतलाते हैं । आयंगर के मत को गोपालाचार्यस्वामी भी स्वीकार करते हैं । लगध- ज्योतिष के लेखक लगध हैं। 'बार्हस्पत्य' लेख से यह जान पड़ता है कि लगध कदाचित् बर्बरदेशीय मानते थे । परन्तु वेदाङ्गज्योतिष के किसी श्लोक से, भाव से या किसी अन्तः साक्ष्य से लगध का विदेशी होना सिद्ध नहीं होता । लघुचन्द्रिका — द्वैत मतावलम्बी (माध्व) व्यासराज के शिष्य रामाचार्य ने स्वामी मधुसूदन सरस्वती से अद्वैत सिद्धान्त की शिक्षा ग्रहण कर फिर उन्हीं के मत का खण्डन करने के लिए तरङ्गिणी नामक ग्रन्थ की रचना की । इससे असन्तुष्ट होकर ब्रह्मानन्द स्वामी ने अद्वैतसिद्धि पर लघुचन्द्रिका नाम की टीका लिखकर तरङ्गिणीकार के मत का खण्डन किया ।
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लघुटीका - तमिल शैवाचार्य शिवज्ञान योगी ( मृत्युकाल
१७८५ ई० ) ने तमिल शैव सिद्धान्त के आधार ग्रन्थ 'शिवज्ञानबोध' पर दो तमिल भाष्य रचे। एक बड़ा, जिसे 'द्राविड भाष्य' तथा दूसरा छोटा, जिसे 'लघु टीका' कहते है ।
लघुबृहन्नारदीय पुराण- यह एक छोटा ग्रन्थ है, जो सम्भ वतः उपपुराणों में भी नहीं गिना जा सकता । लघुसांख्यसूत्रवृत्ति अठारहवीं शताब्दी के मध्य में नागेश भट्ट ने 'सांख्यप्रवचनभाष्य' की 'लघुसांख्यसूत्रवृत्ति' नामक वृत्ति लिखी । नागेश भट्ट महान् वैयाकरण होने के साथ ही सकलशास्त्रपारंगत विद्वान थे। साहित्य, योग, सांख्य, धर्मशास्त्र, तन्त्र, वेदान्त -- सभी विषयों पर उनकी मर्मस्पर्शी रचनाएँ प्राप्त हैं।
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ललित आगम - रौत्रिक आगमों में से एक 'ललित आगम' भी है।
ललितकान्ता देवी व्रत तिथितत्त्व (पु० ४१, कालिकापुराण 'को उद्घृत करते हुए) के अनुसार 'मङ्गलचण्डिका' ही ललितकान्ता देवी के नाम से पुकारी जाती हैं, जिनकी दो भुजाएँ हैं, गौर वर्ण है तथा जो रक्तिम कमल पर संस्थित हैं, आदि। इस देवी की पूजा से सौन्दर्य और समृद्धि प्राप्त होती है ।
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लव- ललिताव्रत
ललिता दक्षिण भारत के दक्षिणमार्गी शाकों के मत से ललिता सुन्दरी देवी ने जो आँखों को चौंधिया देने वाली आभा से युक्त हैं, चण्डी का स्थान ले लिया है। इनके यज्ञ, पूजा आदि की पद्धति चण्डी के समान ही है । चण्डी (दुर्गा) - पाठ के स्थान पर ललितोपाख्यान, ललितासहस्रनाम, ललितात्रिशती का पाठ होता है । ये तीनों ग्रन्थ ब्रह्माण्ड पुराण से लिये गये हैं । ललितोपाख्यान में देवी द्वारा भण्डासुर तथा अन्य दैत्यों के वध का वर्णन है। ललिता की पूजा में पशुबलि निषिद्ध है।
ललितातन्त्र - 'आगमतत्त्वविलास' में उद्धृत चौसठ तन्त्रों की सूची में ललितातन्त्र भी उद्धृत है। ललितात्रिशती — देवी के तीन सौ नामों का संग्रह | दक्षिण
भारत के कुछ क्षेत्रों में चण्डी के स्थान पर ललिता की उपासना करने वाले भक्त देवी की पूजा के समय इसी का पाठ करते हैं। इस पर शंकराचार्यकृत भाष्य भी उपलब्ध होता है । दे० 'ललिता' ।
ललिताव्रत - माघ शुक्ल तृतीया के दिन मध्याह्न काल में तिल तथा आवले का उबटन शरीर में लगाकर किसी नदी में स्नान करना चाहिए तथा पुष्पादि से ललिता देवी का पूजन करना चाहिए। ताम्रपात्र में जल, सुवर्ण का टुकड़ा तथा अक्षत डालकर किसी ब्राह्मण के सम्मुख रख देना चाहिए। ब्राह्मण उसी पात्र का जल मंत्रोच्चारण करते हुए व्रती के ऊपर छिड़के। महिला व्रती को सुवर्ण का दान करना चाहिए तथा ऐसे जल का सेवन करना चाहिए जिसमें कुश पड़ा हो । रात्रि को देवी में ही ध्यान केन्द्रित करते हुए भूमि पर शयन करना चाहिए। दूसरे दिन ब्राह्मणों तथा एक सधवा नारी का सम्मान किया जाय। यह व्रत वर्ष भर के लिए है जिसमें देवी के भिन्नभिन्न नाम बारहों महीनों में प्रयुक्त होते हैं ( जैसे ईशानी प्रथम मास में, ललिता आठवें में गौरी बारहवें मास में ) । स्त्री व्रती को शुक्ल तृतीया को उपवास करते हुए क्रमश: बारह वस्तुओं का आहार करना चाहिए, जैसे कुशों से पवित्र किया हुआ जल, दूध, घृत इत्यादि व्रत के अन्त में एक ब्राह्मण तथा उसकी पत्नी का सम्मान किया जाना चाहिए । इससे पुत्र, सौन्दर्य तथा स्वास्थ्य प्राप्त होने के साथ साथ कभी भी वैधव्य प्राप्त नहीं होता। भविष्योत्तर पुराण, अग्नि पुराण, मत्स्य पुराण आदि ग्रन्थों में ललितातृतीया का उल्लेख करते हुए बतलाया गया है कि चैत्र
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