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रोहिणी-ल
रोहिणी-चतुयंह सिद्धान्त में चार देवता आते हैं। उनमें वासुदेव (कृष्ण) के बाद संकर्षण का स्थान है। ये वासुदेव के बड़े भाई थे। संकर्षण का अर्थ है 'अच्छी प्रकार से खींचा गया'; क्योंकि ये अपनी माँ के गर्भ से खींच लिये गये थे तथा रोहिणी के गर्भ में रखे गये थे। रोहिणी से ही अन्त में संकर्षण की उत्पत्ति हुई । रोहिणी वसुदेव की बड़ी पत्नी थी। रोहिणीचन्द्रशयन-मत्स्य पुराण (५७) में इस व्रत का उल्लेख बड़े विस्तार से है (श्लोक १-२८ तक) तथा पद्म पुराण (४. २४, १०१-१३०) में भी लगभग उसी प्रकार के श्लोक आये हैं। यहाँ चन्द्रमा के नाम से भगवान् विष्णु की पूजा वर्णित है । यदि पूर्णिमा के दिन सोमवार हो अथवा रोहिणी नक्षत्र हो तो व्रती को पञ्चगव्य तथा सरसों के उबटन के साथ स्नान करने के बाद ऋग्वेद का मंत्र “आप्यायस्व” (१.९१.१६) १०८ बार बोलना चाहिए तथा शूद्र व्रती को यह बोलना चाहिए-"सोमाय नमः विष्णवे नमः" । व्रती को फल तथा फलों से भगवान् की पूजा करके सोम का नामोच्चारण करते हुए रोहिणी को प्रणाम करना चाहिए। व्रती को इस अवसर पर गोमूत्र का पान करना चाहिए, २८ विभिन्न पुष्प चन्द्रमा को अर्पित करने चाहिए। यह व्रत एक वर्ष तक चलना चाहिए। वर्ष के अन्त में पर्यकोपयोगी वस्त्र तथा चन्द्रमा और रोहिणी की सुवर्ण प्रतिमाओं के दान का विधान है। इस समय यह प्रार्थना भी करनी चाहिए कि हे विष्णो! जिस प्रकार आपको, जो सोमरूप है, छोड़कर रोहिणी कहीं नहीं जाती, उसी प्रकार समृद्धि मुझे छोड़कर कहीं न जाये । इससे सौन्दर्य, स्वास्थ्य, दीर्घाय के साथ-साथ व्रती चन्द्रलोक प्राप्त करता है। कृत्यकल्पतरु तथा हेमाद्रि इसे चन्द्ररोहिणीशयन भी बतलाते हैं । रोहिणीद्वादशी-श्रावण कृष्ण एकादशी को लोग (स्त्री या पुरुष) किसी सरोवर इत्यादि के समीप गाय के गोबर से एक मण्डल बनाकर उसमें चन्द्रमा तथा रोहिणी की आकृतियाँ खींचकर उनका पूजन करें तथा नैवेद्य अर्पण करें; बाद में उसे किसी ब्राह्मण को दे दें। तत्पश्चात् द्वादशी को कहीं स्थिर तथा गहरे जल में प्रविष्ट होकर चन्द्रमा तथा रोहिणी में अपना ध्यान केन्द्रित करें और पानी में खड़े-खड़े माष (उड़द की दाल) की एक सहस्र छोटी-छोटी गोलियाँ तथा घृत मिश्रित पाँच लड्डुओं को खायें। इसके बाद घर लौटकर किसी ब्राह्मण को भोजन
तथा वस्त्र दान करना चाहिए। यह क्रिया प्रति वर्ष होनी चाहिए। रोहिणीस्नान--यह भी नक्षत्रवत है। व्रती तथा उसके पुरोहित को रोहिणी तथा कृत्तिका नक्षत्र के दिन उपवास करना चाहिए । इस अवसर पर व्रती को पाँच कलश जल से स्नान कराया जाना चाहिए। स्नान करने के समय व्रती चावलों की ढेरी पर खड़ा रहे जो दूधवाले वृक्षों (वट-पीपल आदि) की छोटी-छोटी शाखाओं, प्रियङ्ग के श्वेत पुष्पों तथा चन्दन से सज्जित हो । व्रती को विष्णु, चन्द्र, वरुण, रोहिणी तथा प्रजापति की पूजा करनी चाहिए; घृत तथा अन्यान्य धान्यों से समस्त देवों का उद्देश्य करके होम करना चाहिए । इसके साथ व्रती को सींग में मढ़ा हआ रत्न भी धारण करना चाहिए। सींग में मिट्टी, घोड़े के बाल तथा खुर से बने तीन भागों को धारण करना विहित है। इससे पुत्र, सम्पत्ति तथा यश की उपलब्धि होती है। रोहिण्यष्टमी-भाद्र कृष्ण पक्ष को रोहिणी नक्षत्र युक्त अष्टमी जयन्ती कहलाती है । यदि अर्ध रात्रि के एक पल पूर्व तथा एक पल पश्चात् रोहिणी और अष्टमी विद्यमान रहें तो यह काल अत्यन्त पुनीत है, क्योंकि यह वही काल है जब भगवान् कृष्ण अवतीर्ण हुए थे । उस दिन उपवास करते हुए भगवान् का पूजन करने से पूर्व के एक सहस्र जन्मों तक के पाप नष्ट हो जाते हैं। एक सहस्र एकादशीव्रतों की अपेक्षा यह रोहिण्यष्टमी व्रत कहीं अधिक श्रेष्ठ है । रौद्रविनायक याग-यदि गुरुवार को एकादशी तथा पुष्य नक्षत्र हो अथवा शनिवार के दिन एकादशी हो और रोहिणी नक्षत्र हो तो इस दिन रौद्रयाग का आयोजन किया जाना चाहिए। इससे पुत्रादि की प्राप्ति के साथ अनेक वरदानों की प्राप्ति होती है ।
ल-यह अन्तःस्थ वर्णों का तीसरा अक्षर है । कामधेनुतन्त्र में इसके स्वरूप का निम्नांकित वर्णन है :
लकारं चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीत्रयसंयुतम् । पीतविद्युल्लताकारं सर्वरत्नप्रदायकम् ।। पञ्चदेवमयं वर्ण पञ्चप्राणमयं सदा । त्रिशक्तिसहितं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा ।।
आत्मादितत्त्व सहितं हृदि भावय पार्वति ।। तन्त्रशास्त्र में इसके कई नाम दिये हुए हैं :
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