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रूपनवमी-रेणुकातीर्थ
मुसलमान सूबेदार के यहाँ कार्य करते थे। इन्होंने तथा कुछ सुवर्ण रखकर किसी ब्राह्मण को दे देना चाहिए। चैतन्यदेव के देवोपम चरित्र और पवित्र धर्ममत से उस दिन एकभक्त पद्धति से आहार करना चाहिए । मुग्ध होकर संसार का त्याग कर महाप्रभु का शिष्यत्व यह संक्रान्तिव्रत है। इस व्रत का परिणाम सौ अश्वमेध ग्रहण कर लिया । क्रमशः ये उस सम्प्रदाय के आश्रय यज्ञों के समान होता है तथा सौन्दर्य, दीर्घायु, सुस्वास्थ्य, और भूषण स्वरूप हो गये । पहले से ही ये प्रकाण्ड विद्वान् समृद्धि तथा स्वर्ग तो प्राप्त होता ही है। थे। इन्होंने चैतन्य के तिरोभाव से प्रायः आठ वर्ष पूर्व रूपसत्र-फाल्गुनी पूर्णिमा के उपरान्त जब चैत्र कृष्ण 'विदग्धमाधव' नाटक की रचना की, जिसकी महाप्रभु ने अष्टमी मूल नक्षत्रयुक्त हो, उस समय इस व्रत का बड़ी प्रशंसा की। इसके अतिरिक्त इन्होंने ललितमा- आयोजन करना चाहिए। इसमें नक्षत्रों, नक्षत्रपतियों, धव, उज्ज्वलनीलमणि, दानकेलिकौमुदी, बन्धुस्तवावली, वरुण, चन्द्र तथा विष्णु का पूजन विहित है। इन सब अष्टादश लीलाकाण्ड, पद्यावली, गोविन्दविरुदावली, देवताओं के लिए होम करना चाहिए तथा अपने गुरु का मथुरामाहात्म्य, नाटकलक्षण, लघुभागवतामृत, भक्तिरसा- सम्मान करना चाहिए। दूसरे दिन उपवास का विधान मृतसिन्धु, व्रजविलासवर्णन और कड़चा नामक ग्रन्थों की है। भगवान् केशव के भिन्न-भिन्न शरीरावयवों में चरणों रचना की। इन ग्रन्थों से इनकी विद्वत्ता का परिचय से प्रारम्भ कर मस्तक तक भिन्न-भिन्न नक्षत्रों को आरोमिलता है। उज्ज्वलनीलमणि अलंकारशास्त्र का प्रामा- पित करते हुए उनकी पूजा करनी चाहिए। चैत्र शुक्ल णिक और प्रसिद्ध ग्रन्थ है। भक्तिरसामृतसिन्धु में पूर्णिमा को इस व्रत का सत्रावसान होता है । व्रत के अन्त भक्ति की व्याख्या तथा वैष्णव मत की साधना का विचार में भगवान् विष्णु की पूजा पुष्प-धूपादि से करनी चाहिए। किया गया है। इनके भतीजे जीव गोस्वामी ने इसकी
गुरु को इस अवसर पर दान-दक्षिणा देनी चाहिए तथा टीका लिखी है। रूप गोस्वामी का 'रिपुदमन विषयक ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इस व्रत से व्रती रागमय कोण' नामक बँगला ग्रन्थ भी मिलता है। रूप स्वर्ग लोक जाता है तथा बाद में जन्म लेने के पश्चात और सनातन ने जिस मत का बीजारोपण किया उसे राजा बनता है । चैत्र शुक्ल अष्टमी के इसी व्रत के लिए जीव ने विकसित किया और बलदेव विद्याभूषण ने उसे देखिए बु० सं० (१०४. ६-१३), जिसमें उपवास तथा पूर्णता प्रदान की।
नारायण एवं नक्षत्रों की पूजा का उल्लेख है । रूपनवमी-मार्गशीर्ष शुक्ल की नवमी को इस व्रत का रूपावाप्ति-(१) पाँच तिथियों को दस विश्वेदेवों की पूजा प्रारम्भ होता है । इसकी चाण्डिका देवता है। व्रती को करने से स्वर्गोपलब्धि होती है। नवमी के दिन उपवास या नक्त या एकभक्त पद्धति से आहार (२) यह मास का व्रत है । फाल्गुन पूर्णिमा के पश्चात् करना चाहिए। आटे का त्रिशूल तथा चाँदी का कमल बना- चैत्र की प्रतिपदा से चैत्र की पूर्णिमा तक इसका अनुष्ठान कर उसे सर्व पापनाशिनी दुर्गाजी को समर्पित कर देना करना चाहिए। इसमें शेषशायी भगवान् की प्रतिमा के चाहिए। पौष तथा उसके पश्चात वाले मासों में भिन्न-भिन्न पूजन का विधान है। इस अवसर पर एकभक्त पद्धति प्रकार के कृत्रिम पशु बनाकर उन्हें भिन्न-भिन्न धातू- से आहार करना चाहिए । पृथ्वी पर शयन करना चाहिए, पात्रों में रखना चाहिए। तदनन्तर वे देवी को भेंट कर किसी पालने या झूले पर नहीं । तीन दिन उपवास रखते दिये जाँय । इस व्रत के आचरण से व्रती असंख्य वर्षों तक हुए चैत्र की पूर्णिमा को पूजन के उपरान्त एक जोड़ा चन्द्रलोक में वास करने के बाद सुन्दर राजा बनता है। वस्त्र तथा चाँदी का दान करना चाहिए। इससे रूप रूप का तात्पर्य है शिल्पियों या कलाकारों द्वारा बनायी अर्थात् सौन्दर्य की उपलब्धि होती है। गयी कोई वस्तु अथवा आकृति, जो किसी पशु से ममता रेणुकातीर्थ-(१) हिमाचल प्रदेश का पर्वतीय तीर्थ । शिमला रखती हो। जिन देवताओं का ऊपर उल्लेख आया है से नाहन और दहादू जाकर गिरिनदी को पार करके वे या तो दुर्गाजी हों या मातृदेवता ।
पैदल रेणुकातीर्थ जाने का मार्ग है। दहादू से रेणुकारूपसंक्रान्ति-संक्रान्ति के दिन व्रती को तैल मर्दन के तीर्थ दो फलाँग के लगभग है। यहाँ रेणुका झील और साथ स्नान करना चाहिए। उसके अनन्तर पात्र में घी परशुरामताल है । परशुरामजी तथा उनकी माता
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