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रेणुकाजी का मन्दिर है । एक धर्मशाला है, जो अरक्षित है। कार्तिक शुक्ल पूर्णिमा पर मेला लगता है। रेणुका झील के पास यमदग्निपर्वत है ।
(२) आगरा-मथुरा के मध्य यमुनातीर पर स्थित वर्तमान 'नकता' स्थान रेणुकाक्षेत्र कहा जाता है। रेवणनाथ - नाथ सम्प्रदाय के नव नाथों में से छठे रेवणनाथ थे।
रेवणाराध्य - वीरशैव मत सृष्टि के आरम्भकाल से प्रचलित माना जाता है । प्रत्येक युग में इसके जो आचार्य हुए हैं। उनके नाम 'सुप्रबोधागम' आदि ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं । कलियुग के आरम्भ में भी पाँच शैवाचार्य हुए हैं । उनमें पहला नाम रेवणाराध्य का है । सम्भवतः ये ही बहल्ली मठ के प्रथम आचार्य थे ।
रेवा - नर्मदा नदी का एक नाम, जो केवल एक बार उत्तर वैदिक साहित्य में व्यवहृत हुआ है । यह शतपथ ब्रा० ( १२.८, १,१७ ) में प्राप्त है तथा निश्चित रूप से एक मनुष्य का नाम है जो रेवा ( नर्मदा ) के उस पार रहता था । पाणिनि ( ४.२.८७ ) के एक वार्तिक में 'महिष्मत्' शब्द की व्युत्पत्ति 'महिष' शब्द से की गयी है । महिष्मत् स्पष्टतः नर्मदातट पर स्थित माहिष्मती नगरी थी। रघुवंश (६.४३ ) में अनूप देश की राजधानी माहिष्मती रेवा पर स्थित बतलायी गयी है । स्कन्दपुराण का एक भाग रेवाखण्ड कहलाता है, जो रेवा ( नर्मदा ) की उत्पत्ति और उसके किनारे स्थित तीर्थों का विस्तृत वर्णन करता है । दे० 'नर्मदा' |
रेवासागर संगम — दक्षिण गुजरात का समुद्रतटवर्ती एक तीर्थ यह विमलेश्वर से १३ मील दूर है। रेवा( नर्मदा ) सागरसंगम तीर्थ पर प्रकाशस्तम्भ (लाइटहाउस) और उसके पास 'हरि का धाम' नाम का स्थान है । नर्मदा (रेवा ) के सागर से मिलने के कारण ही इसका महत्त्व है । रेवास- सोलह
शताब्दी वि० के पूर्वार्ध में इनका प्रादुर्भाव हुआ था। ये कबीर के समकालीन तथा स्वामी रामानन्द के मुख्य शिष्यों में से थे। जाति के ये चमार थे। मीराबाई ने इनका दर्शन किया और अपना गुरु बनाया था। अपने पदों में मीराबाई ने दो-तीन बार इनका उल्लेख किया है। रैदास के भी रचे कुछ पद हैं । इनके अनुयायी रैदासी या रविदासी कहलाते है। इस सम्प्र
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रेवणनाथ - रोमहर्षण
दाय की परम्परा १५७० ई० के लगभग इन्हीं से आरम्भ हुई रोगविधि - रविवार के दिन पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र हो तो सूर्य का पूजन करना चाहिए। इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सूर्यलोक प्राप्त करता है। अर्क के फूलों से सूर्य की पूजा करनी चाहिए। इस दिन पायस तथा अर्क के फूलों का भोजन विहित है । रात्रि को भूमि पर शयन करना चाहिए। इससे व्रती समस्त रोगों से मुक्त होकर सूर्यलोक प्राप्त करता है।
रोचरोच—यह कतिपय व्रतों का नाम है यथा मासोपवास, ब्राह्म रोष काल रोच आदि। चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को प्रारम्भ करके एक मास या एक वर्ष तक व्रत का आयोजन करना चाहिए। विष्णुधर्म० ( ३.२२२-२२३ ) इनका वर्णन करता है। अध्याय २२४ में स्त्रियों के अनिश्चित चरित्र का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार समस्त अधर्म तथा बुराई की जड़ स्त्रियों है किन्तु साथ ही वे धर्म, अर्थ तथा काम की साधक हैं। रत्न के समान उनकी रक्षा करनी चाहिए ( श्लोक २५-२६) । रोटक - श्रावण शुक्ल के प्रथम सोमवार को इस व्रत का आरम्भ होता है । यह व्रत साढ़े तीन महीनों तक चलना चाहिए । कार्तिक मास की चतुर्दशी को उपवास रखते हुए बिल्वपत्रों से शिव पूजन करना चाहिए। इस अवसर पर पाँच रोट (लोहे अथवा मिट्टी के तवे पर सेंके गये गेहूँ के पाँच रोट) तैयार करने चाहिए; एक नैवेद्य के लिए, दो ब्राह्मणों के लिए, एक प्रसाद वितरणार्थ तथा एक व्रती के लिए। इस व्रत में शिवजी का पूजन विहित है। पांच वर्षपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना चाहिए। व्रत के अन्त में दो सुवर्ण या रजत के रोटों का दान करना चाहिए इसका नाम विश्वरोटक व्रत भी है । रोमहर्षण महर्षि वेदव्यास के एक सूतजातीय रोमहर्षण नामक शिष्य विख्यात हुए, जिन्हें 'लोमहर्षण' भी कहते हैं। महामुनि ने पुराणसंहिता प्रथमतः इन्ही को पढ़ायी । रोमहर्षण के छः शिष्य हुए, उनके नाम सुमति अग्निवर्चा, मित्रयु शांसपायन, अकृतप्रण और सावण थे। इनमें से कश्यपवंशीय अकृतव्रण, सार्वाण और शांसपायन ने रोमहर्षण से पढ़कर मूलसंहिता के आधार पर एक-एक पुराणसंहिता की रचना की । इन्हीं चार संहिताओं का सार संग्रह करके अन्य पुराणसंहिताएँ रची गयी ।
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