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रामानन्ददिविजय-रामानुज
शिष्य कबीर १४४० से १५१८ ई० तक रहे। स्पष्ट है कि कबीर रामानन्द के सबसे पीछे के शिष्य नहीं थे । अतएव यह बहुत कुछ सत्य होगा यदि रामानन्द का काल १४०० से १४७० ई० तक मान लिया जाय । किसी भी तरह १० वर्ष का हेरफेर भूल माना जा सकता है। जनश्रुति के अनुसार इनका जन्म प्रयाग में हुआ, किन्तु नैष्ठिक संन्यासी के रूप में अपने जीवन का अधिकांश भाग इन्होंने काशी में व्यतीत किया।
सभी परम्पराएँ मानती हैं कि वे रामानुज सम्प्रदाय के सदस्य थे तथा उनके अनुयायो आज भी श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के साम्प्रदायिक चिह्न के विकसित रूप का प्रयोग करते है । अतः कहा जा सकता है कि उनका सम्बन्ध श्रीसम्प्रदाय से भी था। श्रीवैष्णव विष्णु के सभी अवतारों एवं उनको पत्नियों ( शक्तियों) के देवत्व को स्वीकार करते हैं । परन्तु कृष्णावतार के अति प्रसिद्ध और पूर्ण होते हुए भी राम एवं नरसिंह अवतार का इनके बीच अधिक आदर है । इसलिए यह ध्यान देने योग्य है कि रामानन्द ने स्वतन्त्र रूप में केवल राम, सीता तथा उनके सेवकों की पूजा को ही विशेषतया अपनाया। उनके तथा उनके शिष्यों के मध्य राम नाम का प्रयोग ब्रह्म के लिए होता है। इनका गुरुमन्त्र श्रीवैष्णवमन्त्र ( नारायणमन्त्र) नहीं है, अपितु 'रां रामाय नमः है'। तिलक भी श्रीवैष्णव नहीं है । फलतः इनके सम्प्रदाय का नामकरण करना कठिन है । रामानन्द श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के अन्तर्गत होते तो उन्हें त्रिदण्डी कहा जाता । किन्तु वे त्रिदण्डी नहीं थे, जैसे कि श्रीवैष्णव होते हैं। श्रीवैष्णवों के सदश वे भोजन के सम्बन्ध में कठोर आचारी भी नहीं थे। पुराने समय से ही देखा जाता है कि एक ऐसा भी सम्प्रदाय था जो अपनी मुक्ति केवल 'राम' की भक्ति में मानता था एवं प्राप्त उल्लेखों के अनुसार इसे उत्तर भारत की अपेक्षा दक्षिण का ही माना जा सकता है । यदि ऐसा मान लें कि यह रामसम्प्रदाय दक्षिण के तमिल देश का था तथा श्रीवैष्णवों से सम्बन्धित था तथा रामानन्द इससे सम्बन्धित थे, तो पहेली सुलझ जाती है। रामानन्द इसे ग्रहण कर दक्षिण से उत्तर आये होंगे तथा 'राम' में मुक्ति लाभ का आदर्श एवं राममन्त्र अपने साथ लाये होंगे। संभव है, रामानन्द 'अध्यात्मरामायण' तथा 'अगस्त्यसुतीक्ष्णसंवाद' भी अपने साथ लाये हों । यद्यपि प्रमाण पक्का नहीं है कि वे ही इन
ग्रन्थों को इधर लाये थे, किन्तु इन ग्रन्थों का उनके शिष्यों द्वारा बड़ा आदर एवं प्रयोग हुआ है । तुलसीदास के रामचरितमानस के ये ही स्रोत हैं। अगस्त्यसुतीक्षणसंवाद का उपयोग आज भी रामानन्दी वैष्णव करते हैं, क्योंकि यह संवाद रामानन्द की जीवनी के साथ प्रकाशित हुआ है।
रामानन्द रामानुजविरचित श्रीभाष्य पढ़ने के अभ्यासी थे, यद्यपि यह श्रीवैष्णवों के लिए रचा गया था। कारण यह है कि इसका स्पष्ट ईश्वरवाद सभी ईश्वरवादियों के अनुकूल था । रामानन्द के शिष्य एवं अनुयायी भी इसी भाष्य को आदर से पढ़ते रहे हैं, क्योंकि कोई भी रामानन्दी वेदान्त भाष्य प्रचलित नहीं हुआ।
रामानन्द के धार्मिक आन्दोलन में जाति-पाँति की छूट थी । शिष्यों को ग्रहण करने में वे जाति का विचार नहीं करते थे, जो एकदम नयी दिशा थी। उनके शिष्यों में न केवल एक-एक शूद्र, जाट एवं जातिबहिष्कृत पाये जाते हैं बल्कि एक मुसलमान तथा एक स्त्री भी उनकी शिष्य थी । उनका एक पद उनके शिष्यों में नहीं, बल्कि सिक्खों के ग्रन्थ साहब में प्राप्त होता है।
यह बहुमान्य है कि रामानन्द विशिष्टाद्वैत वेदान्तमत को मानने वाले थे । उनकी शिक्षा सगुण-निर्गण एकेश्वरवाद का समन्वय करती थी, जो कबीर, तुलसी, नानक तथा अन्य रामानन्द के अनुयायी सन्तों में देखने में आती है । भारत में रामानन्दी साधुओं की संख्या सर्वाधिक है। रामानन्वदिग्विजय-यह स्वामी रामानन्द के जीवनवृत्तान्त पर प्रकाश डालने वाला एक काव्य ग्रन्थ है। रामानन्द सरस्वती-वेदान्तसूत्र पर 'ब्रह्मामृतवर्षिणी' टीका के लेखक (१६वीं शताब्दी के अन्त में ) । इन्होंने योगसूत्र पर 'मणिप्रभा' नामक प्रसिद्ध वृत्ति रची है। इनका एक और ग्रन्थ 'विवरणोपन्यास' है जो पद्मपादाचार्य कृत ‘पञ्चपादिका' पर प्रकाशात्मयति के लिखे हुए विवरण नामक ग्रन्थ पर एक निबन्ध है । ये रत्नप्रभाकार गोविन्दानन्द स्वामी के शिष्य थे । अपने गुरु की भाँति ये भी रामभक्त थे । इनका स्थिति काल १७वीं शताब्दी था। रामानुज-आचार्य रामानुज का जन्म १०७४ वि० में दक्षिण भारत के भूतपुरी ( वर्तमान पेरेम्बुपुरम् ) नामक स्थान में हुआ था। ये काञ्ची नगरी में यादवप्रकाश के पास वेदान्त का अध्ययन करने गये। इनका वेदान्त का
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