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रामनाथ शेव- रामराज्य
रामनाथ शेव त्रिपुरा ग्रामवासी पं० रामनाथ विग्रन्थविशारद ने सन्देहभूमिका नामक एक पुस्तक लिखी है । शिवपुराण की विषयसूची का यह एक मात्र साधन है । रामनामले बनवत - इस व्रत का प्रारम्भ रामनवमी को अथवा किसी भी दिन किया जा सकता है । श्री राम का नाम एक लक्ष या एक कोटि बार लिखा जाता है । राम के नाम का एक भी अक्षर महापातकों को नष्ट करने में समर्थ है (एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम्) | इस व्रत के अनुसार लिखित रामनाम का षोडशोपचार पूजन करना चाहिए। राम के नाम में अद्भुत चमकार भरे हुए हैं, इस कारण १०८ या १००० बार रामनामजपने का प्रचलन हो गया है । दे० व्रतराज, ३३०३३२ ।
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रामपूर्वतापनीयोपनिषद् - इस उपनिषद् के पर्यालोचन से जान पड़ता है कि इसकी रचना के समय या इससे पूर्व रामोपासक सम्प्रदाय प्रचलित था। इसमें राम को अवतारब्रह्म माना गया है तथा "रां रामाय नमः" यह मन्त्र कहा गया है। इसमें एक रहस्यमय यन्त्र भी अंकित है जो मुक्ति तथा आनन्ददायक कहा गया है । एक पवित्र शब्द भी लिखा गया है, जो पवित्र मन्त्र का वाहक है। रामभक्त - तमिल देश में आज कोई विशिष्ट रामभक्त सम्प्रदाय नहीं है, किन्तु वहाँ ' रामभक्तों' अर्थात् साधुओं की भरमार है, जो राम के भजन ध्यान से ही मुक्ति प्राप्ति का विश्वास करते हैं। ये वहाँ के प्राचीन रामभक्त सम्प्रदाय के अवशेष हैं । राम भार्गवावतार - ऐतरेय ब्राह्मण में राम भार्गवावतार का वर्णन है। पुराणों के अनुसार राम ( भार्गव ) विष्णु के प्रसिद्ध अवतारों में से हैं, जो परशुराम भी कह लाते हैं ।
राम मिश्र श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के एक आचार्य जो नाथ मुनि के प्रशिष्य तथा पुण्डरीकाक्ष के शिष्य थे । राम मिश्र के उपदेश के प्रभाव से यामुनाचार्य राजसम्मान छोड़कर रङ्गनाथजी के सेवक हो गये थे । एक तरह से संन्यासी यामुनाचार्य के ये गुरु थे । राममिश्र के बारे में विशेष बातें नहीं ज्ञात हैं ।
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राममोहन राय - बङ्गाल के प्रकाण्ड विद्वान्, सुधारक और ब्रह्मसमाज के आदि प्रवर्तक सं० १८०५ वि० में एक ब्राह्मण जमींदार के घर हुगली जिले के राधानगर में
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राजा राममोहन राय का जन्म हुआ। आरम्भ में इनकी शिक्षा पटना में अरबी-फारसी के माध्यम से हुई इस्लाम का इन पर बड़ा प्रभाव पड़ा, फिर इन्होंने काशी में संस्कृत का पूरा अध्ययन किया। एक ओर वेदान्तदर्शन का अध्ययन तथा दूसरी ओर मूफी मत का अध्ययन करने के फलस्वरूप ये ब्रह्मवादी हो गये, मूर्तिपूजा के विरोधी तो प्रारम्भ से ही थे । बाईस वर्ष की अवस्था से अंग्रेजी पढ़कर ये ईसाइयों के सम्पर्क में आ गये । ईसाई धर्म के मूल तत्त्व को समझने के लिए इन्होंने यूनानी और इब्रानी भाषाएँ पढ़ीं और ईसाइयों के त्रित्ववाद और अवतारवाद का खण्डन किया। अन्त में जाति-पांति, मूर्तिपूजा, बहुदेववाद, अवतारवाद आदि हिन्दू मन्तव्यों के विरुद्ध प्रचार करने और एक ब्रह्म की उपासना करने के लिए सं० १८८५ वि० के भाद्रपद मास में इन्होंने 'ब्रह्मसमाज' की स्थापना की। पहले इस संस्था में राममोहन राय साधारण सदस्य की तरह सम्मिलित हुए । वास्तव में ये ही उसके प्राण थे। तीन वर्ष पश्चात् ये दिल्ली के बादशाह की ओर से राजा की उपाधि और दौत्य कर्म का अधिकार लेकर इंग्लैंड गये। वहीं सं० १८९० वि० की आश्विन शुक्ल चतुर्दशी को ज्वरग्रस्त होकर ब्रिस्टल में शरीर छोड़ा। इसी नगर में उनकी समाधि बनी
हुई है। रामरंजा पंथ - सिक्खों में सहिजधारी और सिंह दो सम्प्रदाय हैं । इनके भी अनेक पंथ हैं । सहिजधारियों के छ: पंथ हैं तथा सिंहों के तीन । रामरंजा पंथ सहिजधारियों की एक शाखा है । इस पंथ के चलाने वाले गुरु हरराय के पुत्र रामराय थे |
रामराज्य - हिन्दू राजनीति में राम को आदर्श राजा एवं वेण को अधम माना गया है। आज भी अच्छी राजव्यवस्था के लिए 'रामराज्य' शब्द का प्रयोग होता है। महात्मा गान्धी उसी रामराज्य की कल्पना भारतीयों के समक्ष रखा करते थे । संक्षेप में रामराज्य की कल्पना गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस रामायण में इस प्रकार की है :
भौतिक तापा । दैहिक दैविक रामराज्य सपनेहुँ नहि व्यापा ॥
[ राम के राज्य में दैहिक, दैविक तथा भौतिक तीनों
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