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योगसारसंग्रह-योनिऋक
को शिक्षा के साथ सांख्य के विचारों का मिश्रण भी प्राप्त सिद्धिप्राप्त महात्मा भी योगीश्वर कहे जाते हैं। है। योग की महत्ता पर भी इसमें बल दिया गया है। योगेश्वरवत अथवा योगेश्वरद्वादशी-कार्तिक शुक्ल एकाइसकी रचनातिथि १३०० ई० के लगभग अथवा और दशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। चार जलपूर्ण पूर्व हो सकती है।
कलश, जिनमें रत्न पड़े हों, सफेद चन्दन चचित हो तथा योगसारसंग्रह-सोलहवीं शताब्दी के मध्य आचार्य विज्ञान- चारों ओर श्वेत वस्त्र लिपटा हो एवं जो तिलपूर्ण ताम्रभिक्षु द्वारा रचित एक उपयोगी योगविषयक ग्रन्थ । पात्रों से ढके हों, पात्रों में सुवर्ण पड़ा हो, ऐसे चारों योगसूत्र-पतञ्जलि मुनि द्वारा रचित योगशास्त्र की मौलिक कलश चार महासागरों के प्रतीक होते है। एक पात्र के कृति । विद्वानों ने इसका रचना काल चौथी शताब्दी मध्य में भगवान् हरि की प्रतिमा (जो योगेश्वर है) ई० माना है । यह योग उपनिषदों के बाद की रचना है। स्थापित कर पूजी जानी चाहिए। रात्रि को जागरण का विशेषार्थ दे० 'योग (दर्शन')।
विधान है। द्वितीय दिवस चारों कलशों को चार ब्राह्मणों योगसूत्रभाष्य-यह भाष्य ७वीं या ८वीं शताब्दी में रचा
को दान में दे देना चाहिए तथा सुवर्ण प्रतिमा किसी गया है। कुछ लोग इसके लेखक का नाम वेदव्यास बताते पांचवें ब्राह्मण को देकर पाँचों ब्राह्मणों को सुन्दर भोजन हैं। परन्तु इस वेदव्यास तथा महाभारत के रचयिता वेदव्यास
कराकर दक्षिणादि से सन्तुष्ट करना चाहिए । इसका नाम को एक नहीं समझना चाहिए। इस भाष्य का अंग्रेजी
धरणीव्रत भी है। व्रती इस व्रत के फलस्वरूप समस्त अनुवाद तथा परिचय उड्स् महोदय ने लिखा है। उन्होंने पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक प्राप्त कर लेता है। इसकी दार्शनिक शैली की प्रशंसा की है।
योनि-(१) जीवों की विभिन्न जातियाँ योनि कहलाती हैं। योगिनी-भारतीय लोककथाओं में योगी प्रायः जादूगर इनका वर्गीकरण पुराण आदि में ८४,००,००० प्रकार के रूप में प्रदर्शित हुए हैं। जादू की ऐसी शक्ति रखने- का बतलाया जाता है। जल, स्थल, वायु, आकाशचारी वाली साधिका स्त्री 'योगिनी' (जादूगरनी) के रूप में सभी प्राणी (स्थावर पेड़-पौधे भी) इनमें सम्मिलित है। वणित है । शिवशक्तियाँ अथवा महाविद्याएँ भी योगिनी के
(२) स्त्रीतत्त्व का प्रतीक, मातृत्व का बोधक अङ्ग । रूप में कल्पित की गयी हैं। योगिनियों की चौसठ संख्या
प्रागैतिहासिक युग के पंजाब तथा पश्चिमोत्तर प्रदेश के बहुत प्रसिद्ध है । चौसठ योगिनियों के कई प्राचीन मन्दिर लोगों के धर्म में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान था। उत्पत्तिहैं जिनमें भेड़ाघाट ( त्रिपुरी-जबलपुर ), खजुराहो आदि स्थान होने के कारण यह आदरणीय और पूजनीय माना के मन्दिर विशेष उल्लेखनीय हैं।
जाता था। शाक्त धर्म में इसका बहुत महत्त्व बढ़ा, योगिनीतन्त्र-वाममार्गी शाक्त शाखा का १६वीं शताब्दी
योनिचिह्न शक्ति का प्रतीक और सृष्टि का मूल बन गया। का यह ग्रन्थ दो भागों में उपलब्ध है। पहला भाग सभी
अनेक रूपों में इसकी अभिव्यक्ति और कला में अंकन तान्त्रिक विषयों का वर्णन करता है, दूसरा भाग वास्तव
हुआ। कामाख्या पीठ में योनि की पूजा होती है। में 'कामाख्यामाहात्म्य' है। इस पर वाममार्ग का विशेष लिङ्गोपासना में भी लिङ्ग का आधार योनि ही है। प्रभाव है।
शिवमन्दिरों में लिङ्ग योनि में ही प्रतिष्ठित रहता है। योगी-योगमत पर चलने वाले, योगाभ्यास करने वाले योनि ऋक-सामवेद के आचिक ग्रन्थ तीन है : छन्द, आरव्यक्ति योगी कहलाते हैं। प्रायः हठयोगियों के लिए प्यक और उत्तर । उत्तराचिक में एक छन्द की, एक स्वर साधारण जनता में यह शब्द प्रयुक्त होता है ।
की और एक तात्पर्य की तीन-तीन ऋचाओं को लेकर योगीश्वर-शिव का पर्याय । कुछ योगी अपनी भयावनी एक-एक सूक्त बना दिया गया है। इन सूक्कों का व्यूच क्रियाओं का अभ्यास श्मशान भूमि में करते है तथा नाम रखा गया है। इसी तरह की समान भावापन्न दो-दो भूत योनियों पर अपना प्रभुत्व स्थापित कर लेते हैं। ऋचाओं की समष्टि का नाम प्रगाथ है। चाहे त्र्यच हो शिव इन योगियों के भी स्वामी है अर्थात् योगीश्वर चाहे प्रगाथ, इनमें प्रत्येक पहली ऋचा का छन्द हैं तथा योग का अभ्यास भी करते हैं।
आर्चिक में से लिया गया है। इसी आचिक छन्द से एक
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