________________
५४६
तक न चल सका । इसका अनोखा सिद्धान्त यह था कि शरीर को अमर बनाये बिना मोक्ष नहीं प्राप्त हो सकता और यह अमर शरीर केवल रस ( पारव) की सहायता से ही प्राप्त किया जा सकता है, जिसे वे शिव व पार्वती के सर्जनात्मक मिलन के फलस्वरूप ही उत्पन्न मानते थे । दिव्य शरीर प्राप्त करने के बाद भक्त योगाभ्यास से परम तत्त्व का आन्तरिक ज्ञान प्राप्त करता है तथा इस जीवन से 'मुक्त हो जाता है। अनेक प्राचीन आचार्य तथा ग्रन्थ इस मत से सम्बन्धित कहे गये हैं । पदार्थनिर्णय के सम्बन्ध में प्रत्यभिज्ञा और रसेश्वर दोनों दर्शनों का मत प्रायः समान है। रसेश्वर दर्शन के अनुयायी शिवसूत्रों को प्रमाण मानते हैं । ये शङ्कराचार्य के अद्वैत सिद्धान्त के पोषक हैं । विक्रम की दसवीं शताब्दी में सोमानन्द ने शिवदृष्टि नामक ग्रन्थ लिखकर इस मत की अच्छी व्याख्या की । रहस्यप्रायश्चित्त-धर्मशास्त्र के तीन मुख्य विषयों में एक विषय प्रायश्चित्त है, अन्य दो हैं व्यवहार ( दण्ड या न्याय प्रक्रिया ) और आचार ( धार्मिक प्रथा ) । प्रायश्चित्त अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जिनमें 'रहस्यप्रायश्चित्त' (गुप्त प्रायश्चित्तों) का भी वर्णन आया है। ये उन अपराधों के शमनार्थ किये जाते हैं जो खुले तौर पर किसी को ज्ञात न हों ।
7
राक्षस वैदिक कालीन राक्षसों की कल्पना का आधार मानव के हानिप्रद रहस्यात्मक अनुभव थे । यथा सर्दी के अनुभव, अंधकार, सूखा, बीमारी आदि की उत्पत्ति में किसी न किसी राक्षसी शक्ति की कल्पना की गयी । मानवों के दुःख एवं विपत्तियाँ असंख्य हैं, उन्हीं के अनुसार राक्षस भी असंख्य हैं, जो उनके कारण हैं । इस प्रकार वैदिक काल में प्रत्येक भय, प्रत्येक बीमारी, विपत्ति शारीरिक कष्ट का कारण कोई न कोई राक्षस या यातु (जादू) होता था ।
राक्षसों को कच्चा मांस, मनुष्य का मांस पशु एवं घोड़ों का मांस भक्षण करने वाला कहा गया है । वे अन्धकार में उन्नति करते हैं तथा यज्ञों को भ्रष्ट करने में आनन्दानुभव करते हैं। नैतिक गुणों की दृष्टि से राक्षस तथा जादूगर समान है। वे मूर्ख हैं, स्तुति से घृणा करने वाले हैं, बुरा करने वाले हैं, धूर्त है, चोर-डाकू हैं, झूठे हैं । राक्षस अंधेरे को प्यार करते हैं तथा अनेक रात्रि - पक्षियों, यथा उलूक, कपोत, गृद्ध, चील के रूप में दीख
Jain Education International
रहस्यप्रायश्चित राघवेन्द्रपति
पड़ते हैं तथा रहस्यात्मक बोलियाँ बोलते हैं। राक्षसियों भी होती हैं जो संख्या में देवियों से अधिक हैं और राक्षसों के समान ही दुष्ट तथा क्लेश देनेवाली होती हैं ।
यज्ञ का देवता अग्नि तथा मध्याकाश के नियुताग्नि का देवता इन्द्र राक्षसों के शत्रु हैं । इसलिए अनेक विरुदों के साथ उन्हें राक्षसों को मारनेवाला, दबा देने वाला, टुकड़ाटुकड़ा कर देने वाला कहा गया है। निस्सन्देह प्रकाश व अन्धकार का युद्ध सृष्टि में चला आ रहा है। रात में विचरने वाले राक्षस, जो यज्ञों को नष्ट करते हैं तथा अच्छे व्यक्तियों को हानि पहुँचाते हैं, बुराई तथा पाप के प्रतिरूप हैं । उनका स्थान है तलहीन अन्धकार का खड्ड । इसमें वे इन्द्र के तीक्ष्ण वज्र द्वारा मारे जाते हैं । राक्षस अपने स्थान को लौट जाते हैं । जो व्यक्ति उनके जैसे गुणों वाले हैं, वे भी वहीं जाते हैं। यहां नरक का संकेत है । पुराणों और संस्कृत साहित्य में बहुत सी मानवजातियों को राक्षस कहा गया है। राक्षस शब्द आगे चलकर अनैतिक अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। दुष्ट और शत्रु भी राक्षस कहे जाने लगे । राघवदासाचार्य वीरराघवदासाचार्य श्रीवैष्णव वरदाचार्य के शिष्य थे | उनके पिता का नाम नरसिंह गुरु था । वाधूल वंश में उनका जन्म हुआ था। उन्होंने 'तत्त्वसार' पर 'रत्नप्रसारिणी' नामक टीका लिखी है जो अभी तक प्रकाशित नहीं हुई है ।
राघवद्वावशी ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी को इस व्रत का अनुष्ठान होता है। इस अवसर पर राम तथा लक्ष्मण की सुवर्ण प्रतिमाओं का पूजन करना चाहिए चरणों से प्रारम्भ कर भगवान् के शरीरावयवों का भिन्न-भिन्न नामों को लेते हुए पूजन करना चाहिए। प्रातः काल रामलक्ष्मण के पूजन के उपरान्त एक लोटा में घी भरकर दान करना चाहिए । इस आचरण से व्रती युगों तक स्वर्ग में निवास करता है । इससे पापों का क्षय होता है। यदि व्रती निष्काम रहता है तो उसे मोक्ष की उपलब्धि होती है ।
--
राघवाचू-- वीरशैवाचार्य राघवाचू हरिहर के शिष्य थे । ये १४वीं शताब्दी में हुए ये तथा इन्होंने 'सिद्धराय' नामक एक कर्नाटकी पुराण लिखा है । राघवेन्द्रपति — इन्होंने तैत्तिरीयोपनिषद् की वृत्ति, बृहदा - रण्यक उपनिषद् की खण्डाप्रवृत्ति एवं माण्डूक्योपनिषद् की
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org