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राघवेन्द्रस्वामी-राज्यद्वादशीव्रत
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वृत्ति लिखी है। राघवेन्द्रपति तथा राघवेन्द्र स्वामी एक भाई-बन्धु, जो कर्मणा अथवा पदेन राजन्य नहीं होते थे, ही व्यक्ति हैं यह रहा नहीं जा सकता।
राजन्यबन्धु कहलाते थे। कुछ ऐसा ही दृष्टिकोण 'ब्रह्मराघवेन्द्र स्वामी-माध्व मतावलम्बी संत एवं ग्रन्थकार ।
बन्धु' के लिए भी है। इन्होंने जयतीर्थाचार्य की टीका पर वृत्ति लिखी है। राजमार्तण्ड-योगसूत्र की यह व्याख्या धारा नगरी के जयतीर्थ के प्रधान-प्रधान सब ग्रन्थों पर इन्होंने वृत्ति
__ महाराज भोजने (१०१०-५५ ई०) लिखी थी। यह बहुत लिखी है। इनके ग्रन्थों के नाम हैं तत्त्वोद्योतटीका
स्पष्ट तथा सरल है। योगशास्त्राभ्यासी सम्प्रदाय में वृत्ति, न्यायकल्पलतावृत्ति, तत्त्वप्रकाशिकावृत्ति, भावद्वीप,
इसका भी विशेष महत्त्व है। वादावलीटीका, मन्त्रार्थमञ्जरी, तत्त्वमंजरी और गीता
राजयोग-योगमार्ग का एक सम्प्रदाय । यह हठयोग से विवृति । इन्होंने ईश, केन, प्रश्न, मुण्डक, छान्दोग्य तथा
भिन्न है। हठयोग में शारीरिक क्रियाओं द्वारा चित्तवत्तितैत्तिरीय उपनिषदों के खण्डार्थ प्रस्तुत किये । इनके ग्रन्थों
निरोध की प्रक्रिया पर बल दिया जाता है। राजयोग में की भाषा सरल है। ये सम्भवतः सत्रहवीं शताब्दी में
बौद्धिक अनुशासन पर अधिक बल दिया जाता है। वर्तमान थे। राघवेन्द्र यति तथा राघवेन्द्र स्वामी एक ही व्यक्ति हैं।
राजराजेश्वरव्रत-बुधवार को स्वाती नक्षत्रयुक्त अष्टमी राजकर्ता ( राजकृत् )-यह विरुद अथर्ववेद तथा ब्राह्मणों
हो तो उस दिन उपवास करना चाहिए। उस दिन भगवान् में उनके लिए व्यवहृत है जो स्वयं राजा नहीं होना चाहते ।
शिव को अनेक स्वादिष्ठ खाद्यान्न, मिष्टान्न तथा नैवेद्य थे, किन्तु दूसरों को राजा बनाने में समर्थ थे । ये राजा
अर्पण करने चाहिए। व्रती शिवपूजन के पश्चात् आचार्य के अभिषेक में सहायता करते थे। शतपथ ब्रा० में सूत,
को हार, मुकुट, करधनी, कर्णाभरण, अंगूठियाँ, हाथी ग्रामणी (ग्रामप्रमुख ) आदि इनमें सम्मिलित है ।
अथवा घोड़े का दान दे । इस कृत्य से वह असंख्य वर्षों के राजसूय तथा राज्याभिषेक दोनों में राजकर्ता (बहवचन =
लिए कुबेर के समान पद प्राप्त करने में समर्थ होता है । राजकर्तारः) का बड़ा महत्त्व था।
'राजराज' का अर्थ है कुबेर, जो शिवजी के मित्र है । राजगृह-गया जिले (बिहार) में स्थित प्राचीन तीर्थ कदाचित् राजराजेश्वर का अर्थ भी शिव अथवा कुबेर हो
और राजा जरासन्ध की राजधानी । यह सनातनधर्मी, (जो यक्षों के स्वामी है)। बौद्ध, जैन तीनों का पुण्यस्थल है । पाटलिपुत्र की स्थापना राजराजेश्वरीतन्त्र-'आगमतत्त्वविलास' की चौसठ तन्त्रों से पूर्व राजगृह ही मगध की राजधानी थी। पुरुषोत्तम की सूची में राजराजेश्वरीतन्त्र भी उद्धृत है। मास में बहुत यात्री यहाँ आते हैं। यहाँ दर्शन करने योग्य राज्ञीस्नापन-चैत्र कृष्ण अष्टमी को इस व्रत का अनु ठान स्थान भी पर्याप्त हैं। इनमें ब्रह्मकुण्ड, केदारनाथ, सीताकुण्ड, होता है । कश्मीर प्रदेश में अनुमानतः चैत्र कृष्ण पञ्चमी से वैतरणी, वानरीकुण्ड, सोनभण्डार आदि प्रसिद्ध है। भूमि का 'रजस्वलाव्रत' रखा जाता है । उसके बाद प्रत्येक राजन्यबन्धु-राजन्यबन्धु का अर्थ राजन्य ही है किन्तु घर में सधवा महिलाएँ पुष्पों और चन्दन के प्रलेप से भूमि मूल्यांकन में राजन्यबन्धु राजन्य से घटकर है। शतपथ का मार्जन-शोधन करती हैं। उसके पश्चात् ब्राह्मण लोग ब्रा० में जनक को राजन्यबन्धु कहा गया है, जिन्होंने सौषधिमिश्रित जल से भूमि का सिंचन करते हैं। ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में हरा दिया था। प्रवाहण जैवलि राज्यद्वादशीव्रत-मार्गशीर्ष शुक्ल की दशमी को इस व्रत को भी बृह० उप० में राजन्यबन्धु कहा गया है। शत- का संकल्प लेना चाहिए तथा एकादशी को उपवास करते
। क एक आर पारच्छद (१०.५.२.१० ) में, जहाँ हुए विष्णु का पूजन करना चाहिए। अच्छे खाद्यान्नों से पुरुषों के स्त्रियों से अलग खाने की चर्चा है, राजन्य- होम करना चाहिए। इस व्रत में रात्रि को जागरण का बन्धु को तब तक घृणात्मक नहीं दर्शाया गया है जब तक विधान है। नृत्य तथा गीत इस अवसर पर अवश्य होने कि वास्तव में कोई ब्राह्मण किसी राजकुमार के प्रति घृणा चाहिए । एक वर्ष तक इसका आचरण करना चाहिए। न व्यक्त करे । फिर चारों वर्गों के वर्णन में ( शत० १.१. समस्त द्वादशियों को पूर्ण रूप से मौन धारण करना ४.१२ ) वैश्य को राजन्यबन्धु के पहले स्थान प्राप्त है जो चाहिए । कृष्ण पक्ष की द्वादशी को भी उसी प्रकार के विचित्र है । ऐसा लगता है कि राजन्य (क्षत्रिय ) के वे विधि-विधानों का पालन करना चाहिए, केवल भगवान्
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