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राज्यव्रत-राणायनीय
की पूजा को छोड़कर, जो रक्तिम वस्त्र धारण करने के राज्य-(१) अथर्ववेद तथा परवर्ती ग्रन्थों में नियमित उपरान्त होगी। इस अवसर पर जलाये जाने वाले दीपकों रूप से इसका अर्थ 'साम्राज्यशक्ति' अथवा 'प्रभुता' है। में तेल भरना चाहिए, घी नहीं। इस व्रत के आचरण से शतपथ ब्रा० के अनुसार ब्राह्मण इसके अधिकार के अन्दर व्रती घाटियों का राजा होता है। वह तीन वर्षों में नहीं आते और राजसूय यज्ञ में राजा का पद बढ़ जाता मण्डलेश्वर (प्रान्तीय राज्यपाल ) तथा १२ वर्षों में पूर्ण था। वाजपेय यज्ञ में सम्राट् का पद उच्च होता था। राजा बन जाता है।
एतदर्थ सम्राट् राजा से श्रेष्ठ होता था। राजसूय यज्ञ के राज्यव्रत-ज्येष्ठ शुक्ल तृतीया को वायु, सूर्य तथा चन्द्रमा वर्णन के सम्बन्ध में शतपथ ब्राह्मण राज्य, साम्राज्य, का पूजन करना चाहिए । किसी पवित्र स्थल पर प्रातः भौज्य, स्वाराज्य, वैराज्य, पारमेष्ठय तथा माहाराज्य काल वायु का पूजन करना चाहिए, मध्याह्न काल में आदि शब्दों का प्रयोग करता है । ये राज्य के कई अग्नि में सूर्योपासना तथा जल में सूर्यास्त के समय चन्द्रो- प्रकार थे। पासना करनी चाहिए । एक वर्ष तक इस व्रत का (२) राज्य के कर्तव्यों में धर्म का संस्थापन मुख्य अनुष्ठान होना चाहिए । इस आचरण से व्रती को स्वर्ग है । कौटिल्य ने राज्य (राजा) के इस कर्तव्य पर बड़ा की प्राप्ति होती है। यदि इसका आचरण लगातार तीन बल दिया हैवर्षों तक किया जाय तो हजारों वर्ष तक स्वर्ग में निवास तस्मात्स्वधर्मभूतानां राजा न व्यभिचारयेत् । होता है।
स्वधर्म संदधानो हि प्रेत्य चेह च नन्दति ।। राज्याप्तिसप्तमी-कार्तिक शुक्ल दशमी को इस व्रत का व्यवस्थितार्यमर्यादः कृतवर्णाश्रमस्थितिः । प्रारम्भ होता है। विश्वेदेवों ( क्रतु, दक्ष आदि ) के रूप त्रय्या हि रक्षितो लोकः प्रसीदति न सीदति ॥ में भगवान् केशव का मण्डल बनाकर या ( स्वर्ण या रजत [राजा इस बात को देखे कि प्रजा अपने स्वधर्म से विचकी) मूर्ति रूप में स्थापित कर पूजन करना चाहिए । लित तो नहीं हो रही है। इस कर्तव्य का पालन करता वर्ष के अन्त में स्वर्ण का दान करना चाहिए । इससे हआ राजा इस लोक और परलोक में सुखी रहता है । जब विष्णुलोक की प्राप्ति होती है। इसके अनन्तर व्रती राज्य ( लोक ) में आर्य मर्यादा सुव्यवस्थित रहती है, सर्वोत्तम ब्राह्मणों से युक्त राज्य का राजा हो जाता है। वर्णाश्रम धर्म का ठीक-ठीक पालन होता है और धर्मशास्त्र राजशेखरविलास-वीरशैव मत सम्बन्धी यह कन्नड भाषा ( त्रयी ) में विहित नियमों से देश सुरक्षित रहता है तब का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसके रचयिता षडक्षरदेव हैं । रचना
प्रजा प्रसन्न रहती है और कभी क्लेश को नहीं प्राप्त काल १६वीं शताब्दी है।
होती।] राजसूय-वेदकालीन सोमयज्ञ । परवर्ती साहित्य में यह राणक-कर्ममीमांसा के आचार्य सोमेश्वरकृत 'न्यायसुधा राजनीतिक यज्ञ अथवा राजाओं का अभिषेक संस्कार
आभषक सस्कार का ही अन्य नाम 'राणक' है। इसका रचनाकाल १४०० माना गया है। सूत्रों में इसका विशद वर्णन है किन्तु
ई० के लगभग है। ब्राह्मणों में इसकी मुख्य रूपरेखा प्राप्त होती है। यजुर्वेद- राणायनीय-सामवेद संहिता के तीन संस्करण पाये जाते संहिता में इसमें प्रयोग किये जाने वाले मन्त्र सुरक्षित हैं। है-(१) कौथमी (२) जैमिनीय तथा ( ३ ) राणाराजसूय की मुख्य क्रियाएँ निम्नांकित थीं:
यनीय । राणायनीय का प्रचार महाराष्ट्र में है । इस शाखा राजा को उसके पदानुसार वस्त्राभूषणों से सुसज्जित की भी उपशाखाएं बतायी जाती हैं; राणायनीय, शाक्षयकिया जाता था तथा उसे सम्राचिह्न धनुष-बाण दिये ___णीय, सत्यमुद्गल, मुद्गल, मरास्वन्व, दाङ्गन, कौथुम, जाते थे । वह अभिषिञ्चित होता था, किसी राजन्य के गौतम और जैमिनीय । राणायनीय संहिता में पूर्वाचिक साथ कृत्रिम युद्ध करता था। वह आकाश में ऊपर उछल- एवं उत्तराचिक दो विषय हैं। पूर्वाचिक में ग्रामगेयगान कर अपने को एकछत्र शासक प्रदर्शित करता था। फिर और अरण्यगान दो विभाग हैं। उत्तराचिक में ऊहगान व्याघ्रचर्म पर चरण रखता और इस प्रकार सिंह सदृश तथा उह्यगान, दो विभाग हैं। इस संहिता में जितने मंत्र शक्ति तथा महत्त्व प्राप्त करता था।
हैं, पाठ भेद के साथ सभी ऋग्वेद में प्राप्त होते हैं ।
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