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रात्रि-राधासुधानिधि
५४९ रात्रि-ऋग्वेद ( १०.७०.६) में रात्रि एवं उषा को निम्बार्क मत के अनुयायी थे। फिर भी गीतगोविन्द में अग्नि का रूप कहा गया है । वे एक युग्म देवत्व की राधा प्रेयसी है, जबकि निम्बार्क राधा को कृष्ण की रचना करती हैं। दोनों आकाश (स्वर्ग) की बहिन स्वकीया पत्नी मानते हैं। यद्यपि राधा-सम्प्रदाय के तथा ऋत की माता हैं । रात्रि के लिए केवल एक ऋचा पर्याप्त प्रमाण प्राप्त नहीं होते है, किन्तु अनुमान है ( १०.१२.७ )।
लगाया जाता है कि भागवत पुराण के आधार पर वृन्दामैकडॉनेल के अनुसार रात्रि को अन्धकार का प्रति- वन में राधा की पूजा ११०० ई० के लगभग आरम्भ योगी रूप मानकर 'चमकीली रात' कहा गया है । इस हुई । फिर यह बंगाल तथा अन्य प्रदेशों में फैली । इस प्रकार प्रकाशपूर्ण रात्रि घने अन्धकार के विरोध में खड़ी अनुमान को ऐतिहासिक तथ्य मान लें तो जयदेव की होती है।
राधा सम्बन्धी कविता तथा निम्बार्क एवं विष्णुस्वामी राधा-महाभारत में कृष्ण की कथा के साथ राधा का सम्प्रदायों का राधावाद स्पष्ट रूप से समझा जा सकता उल्लेख नहीं हुआ है । न तो भागवत गण और न माध्व है। तब यह सम्भव है कि निम्बार्क ने अपने राधावाद ही राधा को मान्यता देते हैं । वे भागवत पुराण के बाहर को वृन्दावन में विकसित उस समय किया हो जब नहीं जाते हैं। किन्तु सभी परवर्ती सम्प्रदाय, जो अन्य विष्णुस्वामी अपने सिद्धान्त का दक्षिण में प्रचार कर रहे कुछ महापुराणों को महत्त्व देते हैं, राधा को मान्यता ___ हों। दे० 'राधावल्लभीय' । देते हैं।
राधावल्लभ (सम्प्रदाय)-(राधा के प्रिय) कृष्ण का उपाभागवत पुराण में एक गोपी का कृष्ण इतना सम्मान सक एक प्रेममार्गी सम्प्रदाय, जिसकी स्थापना देवबन्द करते हैं कि उसके साथ अकेले घूमते हैं तथा अन्य (सहारनपुर) के पूर्वनिवासी गोस्वामी हरिवंशजी ने वृन्दागोपियाँ उसके इस भाग्य को देखकर यह अनुमान करती वन में की। है कि उस गोपी ने पूर्व जन्म में अधिक भक्ति से कृष्ण की राधावल्लभीय-गोस्वामी हरिवंश उपनाम हितजी आरम्भ आराधना की होगी। यही वह स्रोत है जिससे राधा नाम में माध्वों तथा निम्बार्की के घनिष्ठ सम्पर्क में थे। किन्तु की उत्पत्ति होती है । यह शब्द 'राध्' धातु से निर्मित है,
उन्होंने अपना नया सम्प्रदाय सन् १५८५ ई० में स्थापित जिसका अर्थ है सोच-विचार करना, संपन्न करना, आनन्द
किया, जिसे राधावल्लभीय कहते है। इस सम्प्रदाय का या प्रकाश देना। इस प्रकार राधा 'उज्ज्वल आनन्द देने
सबसे प्रमुख मन्दिर वृन्दावन में वर्तमान है, जो राधा के वाली' है। इसका प्रथम कहाँ उल्लेख हुआ, यह कहना।
वल्लभ (प्रिय) कृष्ण का मन्दिर है । संस्थापक के तीन ग्रन्थ कठिन है। एक विद्वान् के मत से राधा का प्रथम
उपलब्ध होते हैं-राधासुधानिधि ( १७० संस्कृत छन्दों उल्लेख 'गोपालतापनीयोपनिषद्' में हुआ है जहाँ 'राधा' में), चौरासी पद तथा स्फुट पद (हिन्दो)। इस प्रकार का वर्णन है और वह सभी राधा-उपासक सम्प्रदायों हितजी ऐसे भक्त हैं जो राधा को कृष्ण से उच्च स्थान द्वारा आदृत है । आचार्य निम्बार्क का सम्प्रदाय राधा को देते हैं । सम्प्रदाय के एक सदस्य का मत है कि कृष्ण राधा सर्वप्रथम और सर्वोपरि मान्यता देता है। विष्णुस्वामी के सेवक या दास है, वे संसार की सुरक्षा का काम कर संप्रदाय भी राधा को स्वीकार करता है । परम्परागत सकते हैं, किन्तु राधा रानी जैसी बैठी रहती हैं । वे (कृष्ण) मध्व, विष्णुस्वामी, फिर निम्बार्क क्रमबद्ध भागवत वैष्णवों राधा के मंत्री हैं। राधावल्लभीय भक्त राधा की पूजाके आचार्य हैं । मध्व राधा का वर्णन नहीं करते । विष्णु- आराधना द्वारा कृष्ण की कृपा प्राप्त करना अपना लक्ष्य स्वामी-साहित्य बहुत कुछ मध्व से मिलता-जुलता है, जब मानते हैं। कि निम्बार्क ने राधा को विशेषता देकर नया उपासना- राधाष्टमी-भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को क्रम चलाया । मध्व के पूर्व उत्तर भारत में राधा सम्बन्धी राधा अष्टमी कहते हैं । राधा भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष में गीत गाये जाते थे तथा उनकी पूजा भी होती थी, सप्तमी को उत्पन्न हुई थीं। अष्टमी को राधा का पूजन क्योंकि जयदेव का गीतगोविन्द बारहवीं शताब्दी के अन्त करने से अनेक गम्भीर पाप नष्ट हो जाते है। की रचना है। बंगाल में माना जाता है कि जयदेव राधासुधानिधि-राधावल्लभीय सम्प्रदाय का एक स्तोत्र
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