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रम्भात्रिरात्रव्रत-रसेश्वर
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गिरिजा पौष में । इस अवसर पर भिन्न-भिन्न प्रकार के भगवती के चरणों को सर्वप्रथम प्रणाम निवेदन कर उनके पदार्थ बनाने चाहिए तथा उन्हें खाना चाहिए।
भिन्न-भिन्न नाम लेकर मस्तक के मुकूट तक सभी अवयवों रम्भात्रिरात्रवत-ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी को इस व्रत का को प्रणाम निवेदन करना चाहिए और इसी प्रकार पूजा प्रारम्भ होता है। तीन दिनपर्यन्त इसका अनुष्ठान होना करनी चाहिए । माघ से कार्तिक तक प्रति मास बारह में चाहिए। यह व्रत स्त्रियों के लिए है। सर्वप्रथम स्नानादि से एक वस्तु का त्याग करना चाहिए । बारह वस्तुएं ये से निवत्त होकर व्रती स्त्री को केले के पौधे की जड़ में हैं-नमक, गुड़, तवराज, मधु, पानक, जीरक, दुग्ध, पर्याप्त जल छोड़ना चाहिए तथा पौधे के चारों ओर धागा दधि, घी, मजिका (रसाला अथवा शिखरिणी), धान्यक लपेटना चाहिए । चाँदी का केले का पौधा और उस पर (धनियाँ), शर्करा । मास के अन्त में त्यक्त वस्तु को एक पात्र सोने के फल बनवाकर पूजना चाहिए। त्रयोदशी को नक्त में भरकर तथा एक अन्य सुन्दर खाद्य पदार्थ रखकर दान विधि से एवं चतुर्दशी को अयाचित विधि से आहार करके करना चाहिए। वर्ष के अन्त में गौरी की सुवर्ण प्रतिमा पूर्णिमा को उपवास रखना चाहिए। वर्ष भर उस वृक्ष को का दान करना चाहिए। इस व्रत के परिणामस्वरूप सींचना चाहिए। इस अवसर पर उमा तथा शिव एवं पाप, शोक तथा रोगों से पूर्ण रूप से मुक्ति मिलती है। कृष्ण तथा रुक्मिणी को भी पूजा करनी चाहिए। त्रयो- रस के पद-वृन्दावनस्थ हरिदासी सम्प्रदाय के प्रवर्तक दशी से पूर्णिमा तक क्रमशः १३,१४ तथा १५ आहुतियों स्वामी हरिदासजी रचित पदों का संग्रह, जो ब्रजभाषा में से हवन करना चाहिए । इस व्रत के आचरण से पुत्र तथा माधुर्यभाव की उपासना का निरूपण करता है । रचनाकाल सौन्दर्य की प्राप्ति होती है तथा वैधव्य से मुक्ति मिलती सोलहवीं शती का मध्य या अन्त है। है। रम्भा का अर्थ कदली अर्थात् केला है। इसीलिए इस रसविद्या-गोरखनाथी योगमत में जहाँ योगासन, नाडीज्ञान, व्रत में कदली से सम्बद्ध कार्यों का विधान है।
षट्चक्र निरूपण तथा प्राणायाम द्वारा समाधि प्राप्ति का रविवारवत-रविवार को नक्त विधि से आहार करना मुख्य उद्देश्य है, वहाँ शारीरिक पुष्टि तथा पञ्चमहाभूतों पर चाहिए अथवा पूर्ण उपवास रखना चाहिए। इस अवसर विजय की सिद्धि के लिए रसविद्या का भी विशेष स्थान पर आदित्यहृदय अथवा महाश्वेता मन्त्र का जप करना है। इस रसविद्या अथवा रसायन के द्वारा अभ्यासी की चाहिए। इससे व्रती की मनःकामनाएँ पूर्ण होती हैं। मानसिक स्थितियों को प्रभावित किया जाता है। इसके सूर्य देवता हैं। स्मृतिकौस्तुभ (५५६,५५७) तथा रसा-ऋग्वेद के तीन परिच्छेदों (१.१.२; ५.५३.९:१०. वर्षकृत्यदीपिका (४२३-४३६) में इस व्रत का बड़े विस्तार ७५.६) में रसा उस जलधारा (नदी) का नाम है जो के साथ वर्णन किया गया है।
भारत की उत्तर-पश्चिम दिशा में बहती थी । अन्य स्थान रविव्रत-(१) माघ मास में रवि के दिन तीन बार सूर्य पर (ऋग्वेद ५.४१.१५,९.४१.६;१०.१००,१-२) यह नाम का पूजन करना चाहिए । एक मास के इस आचरण से पौराणिक धारा का है जो पृथ्वी के सिरे पर है । कुछ छः महीने का पुण्य प्राप्त होता है।
विद्वान् रसा का समानार्थक शब्द अवेस्ता का 'रन्हा' बत(२) माघ मास में रविवार के दिन व्रतारम्भ करके लाते हैं । किन्तु यह शब्द प्रारम्भिक रूप से जल के गुणों प्रति रविवार को सूर्य का पूजन करना चाहिए । एक वर्ष का बोधक है जो सरस्वती या किसी भी नदी के लिए पर्यन्त इस व्रत के अनुष्ठान का विधान है। इस बीच कुछ व्यवहृत हो सकता है। वैदिक युग की राज्य-सीमा में निश्चित वस्तुओं का ही आहार करना चाहिए अथवा रसा नामक नदी पश्चिम में, गङ्गा पूर्व में, उत्तर में हिमाक्रमशः कुछ निश्चित वस्तुओं का खाने में त्याग करना च्छादित पर्वत तथा दक्षिण में सिन्धु आता है। चाहिए।
रसेश्वर-मध्यकालीन शवों के दो मुख्य सम्प्रदाय थे: रसकल्याणिनी-माघ शुक्ल तृतीया को इस व्रत का आरंभ पाशुपत तथा आगमिक एवं इन दोनों के भी पुनर्विभाजन होता है। दुर्गा इसकी देवता हैं। मधु तथा चन्दन से थे। पाशुपत के छः विभाग थे, जिनमें छठा वर्ग 'रसेश्वरों' दुर्गाजी को स्नान कराकर सर्वप्रथम प्रतिमा के दक्षिण का था। माधव ने इस (रसेश्वर) वर्ग का वर्णन 'सर्वभाग का, तदनन्तर वाम भाग का पूजन करना चाहिए। दर्शनसंग्रह' में किया है। यह उपसम्प्रदाय अधिक दिनों
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