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रणथम्भौर-रथक्रान्त
५४३ द्वारका जा निकले। इस घटना की स्मृति में भक्तजनों ने तथा विद्रुम ( मूंगा ) । धामिक कृत्यों में पञ्च रत्नों का प्रेमलांछनपूर्वक उनको ( रण + छोड़ ) रणछोर राय नाम प्रयोग भी होता है, वे हैं : सोना, चाँदी, मोती, मूंगा, से विख्यात कर दिया।
माणिक्य; मतान्तर से सोना, हीरा, नीलम, पुखराज, रणथम्भौर--राजस्थान में सवाई माधोपुर से कुछ दूर पर
मोती। यह किला है। किले के भीतर गणेशजी का विशाल मति रत्नी-रत्नों के जैसा सम्मान पाने वाला। यह उन लोगों है । पर्वत पर अमरेश्वर, शैलेश्वर, कमलधार और फिर का विरुद है जो राज्य के पारिषद ( वरिष्ठ सदस्य ) होते आगे एक प्रपात के पास झरनेश्वर और सीताजी के थे । तैत्तिरीय सं० (१.८.९.१) तथा तैत्ति० प्रा० (१.७. मन्दिर हैं। सामने (चरणों में से ) पानी बह कर दो ३.१) में दी हुई रत्नियों की सूची में पुरोहित, राजन्य, कुण्डों में क्रमशः जाता है । वह जल पहले कुण्ड में काला, महिषी ( पटरानी ), बावाता (प्रियरानी), परिवृक्ति फिर दूसरे कुण्ड में आकर सफेद हो जाता है ।
( परित्यक्ता ), सेनानी, सूत ( सारथि ), ग्रामणी ( ग्रामरत्नत्रयपरीक्षा-अप्पय दीक्षितरचित यह ग्रन्थ श्रीकण्ठ मत प्रमुख ), छत्री ( छत्रधारक ), संगृहीता ( कोषाध्यक्ष ), (शैव सिद्धान्त) से सम्बन्धित है। इसमें हरि, हर और
भागधुग ( राजस्व अधिकारी ) तथा अक्षावाप (द्यूताशक्ति की उपासना की मीमांसा की गयी है।
अध्यक्ष ) सम्मिलित हैं। शत० ब्रा० में क्रम इस प्रकार रत्नप्रभा-आचार्य गोविन्दानन्द कृत शारीरक भाष्य को है : सेनानी, पुरोहित, महिषी, सूत, ग्रामणी, छत्री, प्रसिद्ध टीका। शाङ्करभाष्य की टीकाओं में यह सबसे संगृहीता, भागधुग्, अक्षावाप, गोविकर्तन ( आखेटक ) सरल है।
तथा पालागल ( सन्देशवाहक ) । मैत्रायणी संहिता की रत्नषष्ठी-ग्रीष्म ऋतु का एक व्रत, जो षष्ठी तिथि को
सूची इस प्रकार है : ब्राह्मण (पुरोहित ), राजन्य, सम्पादित होता था। भास के चारुदत्त और शूद्रक के
महिषी, परिवृक्ति, सेनानी, संगृहीता, छत्री, सुत, मृच्छकटिक नाटक के 'अहं रत्नषष्ठीम् उपोषिता' कथन
वैश्य, ग्रामणी, भागदुध, तक्षा, रथकार, अक्षवाप तथा
गोविकत । उपर्युक्त नामों से ठीक-ठीक पता नहीं चलता में संभवतः इसकी ओर ही संकेत है। रत्नहवि-राजसूय या सोम यज्ञ का कार्यक्रम फाल्गुन के
कि राजकुल तथा राजभवन के कर्मचारियों के अतिरिक्त प्रथम दिन से प्रारम्भ होता था। इसकी अनेकानेक
उनमें राजा के व्यक्तिगत सेवक ही थे या जनता के प्रतिक्रियाओं में अभिषेचनीय, रत्नहवियाँ तथा दशपेय महत्त्व
निधि भी। कुछ तो इनमें अवश्य ही जनता के प्रतिनिधि
थे, जैसे ब्राह्मण, राजन्य, ग्रामणी, तक्षा आदि । पूर्ण हैं । यह बारह दिन लगातार किये जाने वाले यज्ञों
राज्याभिषेक और राजसूय के अवसरों पर रत्नियों का का समूह है, जो राजा के 'रत्नों' के गहों में भी
धार्मिक और राजनीतिक महत्त्व होता था। सिद्धान्ततः होता था।
माना जाता था कि राजशक्ति इन्हीं के हाथ में है। रत्न वैदिक राज्यव्यवस्था के अन्तर्गत राजा के मुख्य परा
मानो राजशक्ति का प्रतीक था। इसे ये सब राज्याभिषेक मर्शदाता 'रत्न' (या रत्नी) कहे जाते थे, जिनमें सेनानी, के अवसर पर राजा को सौंपते थे । सुत, पटरानी, पुरोहित, श्रेष्ठी, ग्रामप्रधान आदि गिने- रथकार-रथ बनाने वाला । वैदिक काल में इसकी गणना चुने व्यक्ति होते थे। राजसूय के कुछ होम इन लोगों के राजा के रत्नियों में होती थी। रथ के सैनिक तथा व्यावहाथों से भी सपन्न होते थे। विक्रमादित्य और अकबर के
हारिक महत्त्व के कारण समाज में रथकार का ऊचा मान 'नवरत्न' ऐसी ही राज्यव्यवस्था के अंग जैसे थे। वर्तमान
था। राज्याभिषेक के अवसर पर रथकार भी उपस्थित भारतशासन द्वारा दी जानेवाली सर्वोच्च पदवी 'भारत
होता था और राजा उससे भी रत्न ( राज्याधिकार के रत्न' उक्त वैदिक प्रथा की स्मृति जैसी है।
प्रतीक) की याचना करता था। रत्न (नव अथवा पञ्च)-व्रतराज, १५ (विष्णुधर्मोत्तर से) । रथक्रान्त-(१) महासिद्धसार नामक शाक्त ग्रन्थ में १९२
नव रत्नों का उल्लेख करता है, यथा मोती, सुवर्ण, वैदूर्य, ग्रन्थों की सूची लिखित है, जो ६४ के तीन खण्डों में पद्मराग ( माणिक्य ), पुष्पराग । पुखराज ), गोमेद विभक्त हैं। इन तीन खण्डों के नाम हैं विष्णुक्रान्त, रथ(हिमालय से प्राप्त रत्न ), नीलम, गारुत्मत (पन्ना) क्रान्त तथा अश्वक्रान्त । यह सूची यथेष्ट आधुनिक है,
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