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यौवराज्याभिषेक-रघुनाथदास
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ऋचा और सब तरह से उसी के अनुरूप दो और ऋचाओं रक्तसप्तमी-मार्गशीर्ष कृष्ण सप्तमी का रक्तसप्तमी नाम को मिलाकर यूच बनता है और इसी प्रकार प्रगाथ है । इस तिथिव्रत में रक्त कमलों से सूर्य की अथवा भी। इन्हीं कारणों से इममें जो पहली ऋचाएँ हैं वे श्वेत पुष्पों से सूर्यप्रतिमा की पूजा विहित है। सूर्य की सब योनि ऋक् कहलाती हैं और आचिक भी योनिग्रन्थ प्रतिमा पर रक्त चन्दन से प्रलेप लगाना चाहिए। इस पूजन के नाम से प्रसिद्ध है।
में सूर्य को दाल के बड़े और कृशरा (चावल, दाल तथा
मसालों से बनी खिचड़ी) अर्पित करने का विधान है। योनि ऋक् के बाद ही उसी के बराबर की दो या
पूजन के उपरान्त रक्तिम वस्त्रों के एक जोड़े का दान एक ऋक् जिसके उत्तर दल में मिले उसका नाम उत्तरा
करना चाहिए । चिक है। इसी कारण तीसरे का नाम उत्तर है । एक ही अध्याय का बना हुआ ग्रन्थ जो अरण्य में ही अध्ययन
रक्षापञ्चमी-भाद्र कृष्ण पञ्चमी को रक्षापञ्चमी कहते हैं । करने योग्य हो, आरण्यक कहलाता है। सब वेदों में एक
इस दिन काले रंग से सों की आकृतियाँ खींचकर उनका एक आरण्यक होता हैं । योनि, उत्तर और आरण्यक इन्हीं
पूजन करना चाहिए। इससे व्रती तथा उसकी सन्तानों तीन ग्रन्थों का साधारण नाम आचिक अर्थात् ऋक
को सर्यों का भय नहीं रहता। समूह है।
रक्षाबन्धन-श्रावण पूर्णिमा के दिन पुरोहितों द्वारा किया
जाने वाला आशीर्वादात्मक कर्म । रक्षा वास्तव में रक्षायौवराज्याभिषेक-अनेक प्रमाणों से यौवराज्याभिषेक की
सुत्र है जो ब्राह्मणों द्वारा यजमान के दाहिने हाथ में बाँधा वास्तविकता सिद्ध होती है। इसमें राजा अपने योग्यतम
जाता है। यह धर्मबन्धन में बाँधने का प्रतीक है, (सम्भवतः ज्येष्ठ) पुत्र का अभिषेक करता था। महा
इसलिए रक्षाबन्धन के अवसर पर निम्नांकित मन्त्र भारत, रामायण, हर्षचरित, बृहत्कथा, कल्पसूत्र आदि में
पढ़ा जाता है : यौवराज्याभिषेक का वर्णन पाया जाता है। यह अभिषेक
येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल: । चन्द्रमा तथा पुष्य नक्षत्र के संयोग के समय (पौषी
तेन त्वां प्रतिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल ।। पूर्णिमा को) होता था।
[जिस (रक्षा के द्वारा) महाबली दानवों के राजा बलि (धर्मबन्धन में) बाँधे गये थे, उसी से तुम्हें बाँधता हैं।
हे रक्षे, चलायमान न हो, चलायमान न हो।] मध्य र-अन्तःस्थवर्णी का दूसरा अक्षर । कामधेनुतन्त्र (पटल युग में ऐतिहासिक कारणों से रक्षाबन्धन का महत्त्व ६) में इसका स्वरूप निम्नांकित बतलाया गया है : बढ़ गया । देश पर विदेशी आक्रमण होने के कारण स्त्रियों
रेफञ्च चञ्चलापाङ्गि कुण्डलीद्वय संयुतम् । का मान और शील संकट में पड़ गया था, इसलिए बहिनें रक्तविद्युल्लताकारं पञ्चदेवात्मकं सदा ॥ भाइयों के हाथ में 'रक्षा' या 'राखी' बाँधने लगी, जिससे पञ्चप्राणमयं वर्ण त्रिबिन्दुसहितं सदा ।। वे अपनी बहिनों की सम्मानरक्षा के लिए धर्मबद्ध हो तन्त्रशास्त्र में इसके अधोलिखित नाम कहे गये हैं : जायँ । रो रक्तः क्रोधिनी रेफः पावकस्त्वोजसो मतः । रघुनन्दन भट्टाचार्य-बंगाल के विख्यात धर्मशास्त्री रघुप्रकाशादर्शनो दीपो रक्तकृष्णापरं बली ।। नन्दन भट्टाचार्य (१५००ई०) ने अष्टाविंशतितत्त्व नामक भुजङ्गेशो मतिः सूर्यो धातुरक्त: प्रकाशकः । ग्रन्थ की रचना की, जिसमें स्मार्त हिन्दू के कर्तव्यों की अप्यको रेवती दासः कुक्ष्यशो वह्निमण्डलम् ।। विशद व्याख्या है। यह ग्रन्थ सनातनी हिन्दुओं द्वारा उग्ररेखा स्थलदण्डो वेदकण्ठपला पुरा । अत्यन्त सम्मानित है। प्रकृतिः सुगलो ब्रह्मशब्दश्च गायको धनम् ।। रघुनाथदास-महाप्रभु चैतन्य के छः प्रमुख अनुयायी भक्तों श्रीकण्ठ ऊष्मा हृदयं मुण्डी त्रिपुरसुन्दरी । में रघुनाथदास भी एक थे। ये वृन्दावन में रहते थे सबिन्दुयोनिजो ज्वाला श्रीशैलो विश्वतोमुखी ।। और अपने शेष पाँच सहयोगी गोस्वामियों के साथ चैतन्य
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