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रघुनाथ भट्ट-रणछोर राय
मत के ग्रन्थ लेखन तथा साम्प्रदायिक क्रियाओं का रूप निर्मित है-सत्त्व ( प्रकाश ), रजस् (शक्ति) तथा तैयार करने में लगे रहते थे। ये गोस्वामी गण भक्ति, तमस् (जड़ता) । प्रकृति में ये अमिश्रित, सन्तुलित रहते हैं दर्शन, क्रिया (आचार ) पर लिखते थे, भाष्य रचते थे, तथा उससे उत्पन्न पदार्थों में विभिन्न परिमाणों में मिल सम्प्रदाय सम्बन्धी काव्य तथा प्रार्थना लिखते थे। ये जाते हैं । मैत्रायणी उपनिषद् में एक महत् सत्य के तीन ग्रन्थ सम्प्रदाय की पूजा पद्धति एवं दैनन्दिन जीवन पर रूप विष्णु, ब्रह्मा एवं शिव को क्रमशः सत्त्व, रजस् एवं प्रकाश डालने के लिए लिखे जाते थे। इन लोगों ने मथुरा ___ तमस् के रूप में दर्शाया गया है। जगत् में सारी क्रिया एवं वृन्दावन के आस-पास के पवित्र स्थानों को ढूँढा तथा और गति रजस् के ही कारण होती है। उनका 'मथुरामाहात्म्य' में वर्णन किया और एक यात्रा- रज्जबदास-महात्मा दादू दयाल के शिष्य एक दादूपन्थी पथ (वनयात्रा) की स्थापना की, जिस पर चलकर सभी कवि रज्जबदास हुए हैं। इन्होंने 'बानी' नामक उपदेशात्मक पवित्र स्थलों की परिक्रमा यात्री कर सकें । इन लोगों ने भजनों का संग्रह लिखा है। वार्षिक 'रासलीला' का अभिनय भी आरम्भ किया। रटन्ती चतुर्दशी-माघ कृष्ण चतुर्दशी। यह तिथिव्रत है।
यम की आराधना इस व्रत में की जाती है। अरुणोदय रघुनाथ भट्ट-महाप्रभु चैतन्य के छः शिष्यों एवं वृन्दावन
काल में स्नान कर यम के चौदह नाम (कृत्यतत्त्व, ४५०) में बस जाने वाले गोस्वामियों में से एक । ये रघुनानदास
लेकर उनका तर्पण करना चाहिए । गोस्वामी के भाई थे । दे० 'रघुनाथदास' ।
रणछोर राय-(१) गुजरात प्रदेश के द्वारका धाम और रघुवीरगद्य-आचार्य वेङ्कटनाथ (१३२५-१४२६ वि०) ने।
डाकौर नगर में प्रतिष्ठित भगवान् कृष्ण की दो मूर्तियों के अपने तिरुपाहिन्द्रपुर के निवासकाल में रघुवीरगद्य नामक
नाम । इन स्थानों में रणछोरजी के भव्य मन्दिर अत्यन्त स्तोत्र ग्रन्थ लिखा । यह तमिल भाषा में है। भगवद्भक्ति
आकर्षक बने हुए हैं। इनमें सहस्रों यात्रियों का नित्य इसमें कूट-कूटकर भरी गयी है।
आगमन होता रहता है । भक्तजनों में प्रसिद्धि है कि मध्यरङ्गपञ्चमी-फाल्गुन कृष्ण पञ्चमी को रङ्गपञ्चमी कहा
काल में डाकौर निवासी 'बोढ़ाणा' नामक भील के प्रेमानजाता है । इसी दिन शिव को रङ्ग अर्पित किया जाता है राग से आकृष्ट होकर श्री कृष्ण द्वारका त्याग कर यहाँ और रङ्गोत्सव प्रारम्भ हो जाता है।
चले आये थे। पंडों ने द्वारका से आकर बोढ़ाणा को रङ्गनाथ-(१) श्रीरङ्गम् में भगवान् रङ्गनाथ का मन्दिर सताया, इस पर भगवान् ने उसके ऊपर पंडों का अपने है । तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में मुसलमानों ने जब श्री- बदले का ऋण एक तराजू में सोने से तुलकर चुकाया था। रङ्गम् पर अधिकार कर लिया तब यहाँ का मन्दिर भी सोने के रूप में भी बोढ़ाणा की पत्नी की केवल नाक की उन्होंने अपवित्र कर डाला। इस काल में रङ्गनाथ की बाली थी, जो मूर्ति के समान भारी हो गयी थी। इसकी मूर्ति मुस्लिम शासन से निकलकर दक्षिण भारत के कई स्मृति में आजकल भी डाकौर के मन्दिर में विभिन्न वस्तुओं स्थानों में घूमती रही । जब पुनः यहाँ हिन्दू राज्य स्थापित के तुलादान होते रहते हैं। भक्त का 'ऋण छुड़ाने' के हो गया, श्रीरङ्गम् में इसकी पुनः स्थापना वेदान्ताचार्य कारण इन भगवान् का नाम 'रणछोर राय' प्रसिद्ध हो वेङ्कटनाथ की उपस्थिति में हुई । आज भी उनके रचित गया है। मन्त्र मन्दिर की दीवारों पर लिखे हए पाये जाते हैं ।
(२) भागवत पुराण के अनुसार मथुरा पुरी पर काल(२) रङ्गनाथ ब्रह्मसूत्रों को शाङ्कर भाष्यानुसारिणी यवन और जरासन्ध की दो दिशाओं से चढ़ाई होने पर वृत्ति के रचयिता है। इनका स्थितिकाल सत्रहवीं श्री कृष्ण ने रातोंरात समस्त यादवों को द्वारकापुरी में शताब्दी था।
भेज दिया। फिर दोनों सेनाओं को व्यामोहित कर उनके रङ्गरामानुज-इन वैष्णवाचार्य की स्थिति १८वीं शताब्दी आगे-आगे वे बहुत दूर निकल भागे । उन्हें पकड़ने के लिए में मानी जाती है। इन्होंने विशिष्टाद्वैत वेदान्तभाष्य कालयवन पीछा करने लगा। श्री कृष्ण ने उसे एकान्त में पर व्याख्या ग्रन्थावली वैष्णवों के प्रयोगार्थ लिखी है। ले जाकर एक राजा के द्वारा भस्म करा दिया तथा जरारजस्-प्रकृति तथा उससे उत्पन्न पदार्थ तीन गुणों से सन्ध की सेना के सामने से जंगल-पहाड़ों में छिपते हुए
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